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________________ ७८१ ८६४ व्याख्यानसार-प्रश्भसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष अज्ञानद्वारा नाड़ी पकड़कर दवा करनेके फलकी बराबर ही मतभेद पड़नेका फल हुआ है, और उससे मोक्षमार्ग समझमें नहीं आता । सरल:.-मतभेदकी माथापच्चीको दूरकर, यदि आत्मा और पुद्गलका पृथक्करण करके शांतभावसे अनुभव किया जाय, तो मोक्षमार्ग सरल है, और वह दूर नहीं । ३. अनेक शास्त्र हैं । उन्हें एक एकको बाँचनेके बाद, यदि उनका निर्णय करनेके लिये बैठा जाय, तो उस हिसाबसे पूर्वआदिका ज्ञान और केवलज्ञान कभी भी प्राप्त न हो, अर्थात् उसकी कभी भी पार न पड़े; परन्तु उसकी संकलना है, और उसे श्रीगुरु बताते हैं कि महात्मा उसे अंतमुहूर्तमें ही प्राप्त कर लेते हैं। ४. इस जीवने नवपूर्वतक ज्ञान प्राप्त किया, तो भी कोई सिद्धि नहीं हुई, उसका कारण विमुखदशासे परिणमन करना ही है । यदि जीव सन्मुखदशासे चला होता तो वह तत्क्षण मुक्त हो जाता। ५. परमशांत रसमय भगवतीआराधना जैसे एक भी शास्त्रका यदि अच्छी तरह परिणमन हुआ हो तो बस है। ६. इस आरे ( काल ) में संघयण अच्छे नहीं, आयु कम है, और दुर्भिक्ष महामारी जैसे संयोग बारम्बार आते हैं, इसलिये आयुकी कोई निश्चयपूर्वक स्थिति नहीं, इसलिये जैसे बने वैसे आत्महितकी बात तुरत ही करनी चाहिये । उसे स्थगित कर देनेसे जीव धोखा खा बैठता है । ऐसे कठिन समयमें तो सर्वथा ही कठिन मार्ग (परमशांत होना) को ग्रहण करना चाहिये । उससे ही उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव होते हैं। ७. काम आदि कभी कभी ही अपनेसे हार मानते हैं; नहीं तो बहुत बार तो वे अपनेको ही थप्पड़ मार देते हैं । इसलिये जहाँतक हो, जैसे बने वैसे, त्वरासे उसे छोड़नेके लिये अप्रमादी होना चाहियेजिस तरह उल्दीसे हुआ जाय उस तरह होना चाहिये । शूरवीरतासे वैसा तुरत हुआ जा सकता है । ८. वर्तमानमें दृष्टिरागानुसारी मनुष्य विशेषरूपसे हैं। ९. यदि सच्चे वैद्यकी प्राप्ति हो, तो देहका विधर्म सहजमें ही औषधिके द्वारा विधर्ममेंसे निकलकर स्वधर्म पकड़ लेता है । उसी तरह यदि सच्चे गुरुकी प्राप्ति हो तो आत्माकी शांति बहुत ही सुगमतासे और सहजमें ही हो जाती है। १०. क्रिया करनेमें तत्पर अर्थात् अप्रमादी होना चाहिये। प्रमादसे उल्टा कायर न होना चाहिये। ११. सामायिक संयम । प्रतिक्रमण-आत्माकी क्षमापना-आराधना । पूजा भक्ति. १२. जिनपूजा, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि किस अनुक्रमसे करने चाहिये-यह कहनेसे एकके बाद एक प्रश्न उठते हैं, और उनका किसी तरह पार पड़नेवाला नहीं । ज्ञानीकी आज्ञानुसार, ज्ञानीद्वारा कहे अनुसार, चाहे जीव किसी भी क्रिया प्रवृत्ति करे तो भी वह मोक्षके मार्गमें ही है। १३. हमारी आज्ञासे चलनेसे यदि पाप लगे, तो उसे हम अपने सिरपर ओढ़ लेते हैं । कारण कि जैसे रास्तेमें कॉट पड़े हों तो ऐसा जानकर कि वे किसीको लगेंगे, मार्गमें जाता हुआ कोई आदमी उन्हें वहाँसे उठाकर, किसी ऐसी दूसरी एकांत जगहमें रख दे कि जहाँ वे किसीको न लगे, तो कुछ वह राज्यका गुनाह नहीं कहा जाता; उसी तरह मोक्षका शांत मार्ग बतानेसे पाप किस तरह लग सकता है !
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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