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________________ ८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष तेरहवें गुणस्थानकमें केवलीको भी योगके कारण सक्रियता है, और उससे बंध है; परन्तु वह बंध अबंधबंध गिना जाता है । चौदहवें गुणस्थानकमें आत्माके प्रदेश अचल होते हैं। उदाहरणके लिये, जिस तरह पिंजरेमें रक्खा हुआ सिंह जालीको स्पर्श नहीं करता, वह स्थिर होकर बैठा रहता है, और कोई क्रिया नहीं करता, उसी तरह यहाँ आत्माके प्रदेश अक्रिय रहते हैं । जहाँ प्रदेशकी अचलता है वहाँ अक्रियता मानी जाती है। ६. चलई सो बंधे [धो]-योगका चलायमान होना बंध है । योगका स्थिर होना अबंध है। ७. जब अबंध हो उस समय जीव मुक्त हुआ कहा जाता है। ८. उत्सर्गमार्ग अर्थात् यथाख्यातचारित्र-जो निरतिचार है। उत्सर्गमें तीन गुप्तियाँ गर्भित होती हैं । अपवादमें पाँच समितियाँ गर्मित होती हैं । उत्सर्ग अक्रिय है । अपवाद सक्रिय है । उत्सर्गमार्ग उत्तम है; और उससे जो उतरता हुआ है वह अपवाद है। चौदहवाँ गुणस्थान उत्सर्ग है; उससे नीचेके गुणस्थान एक दूसरेकी अपेक्षा अपवाद हैं। ९. मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, और योगसे एकके बाद एक अनुक्रमसे बंध पड़ता है। १०. मिथ्यात्र अर्थात् जो यथार्थ समझमें नहीं आता । मिथ्यात्वसे विरतिभाव नहीं होता। विरतिके अभाव कषायसे होती है; कषायसे योगकी चंचलता होती है । योगकी चंचलता आश्रव, और उससे उल्टा संवर है। ११. दर्शनमें भूल होनेसे ज्ञानमें भूल होती है । जैसे रससे ज्ञानमें भूल होती है, वैसे ही आत्माका वीर्य स्फुरित होता है, और उसी प्रमाणमें वह परमाणु ग्रहण करती है, और वैसा ही बंध पड़ता है; और उसी प्रमाणमें विपाक उदयमें आता है। उँगलीमें उँगली डाल देनेरूप-अंटीरूपउदय है और उनको मरोड़नेरूप भूल है; उस भूलसे दुःख होता है, अर्थात् बंध बँधता है । परन्तु मरोड़नेरूप भूल दूर हो जानेसे उनकी परस्परकी अंटी सहजमें विपाक देकर झड़ जाती है, और नया बंध नहीं होता। १२. दर्शनमें भूल होती है, उसका उदाहरणः-जैसे लड़का बापके ज्ञानमें तथा दूसरेके ज्ञानमें देहकी अपेक्षा एक ही है, अन्यथा नहीं; परन्तु बाप उसे जो अपना लड़का करके मानता है वही भूल है । वही दर्शनमें भूल है, और उससे यद्यपि ज्ञानमें फेर नहीं तो भी वह भूल करता है, और उससे ऊपर कहे अनुसार बंध पड़ता है। १३. यदि उदयमें आनेके पहिले रसमें मंदता कर दी जाय, तो आत्मप्रदेशसे कर्म खिरकर निर्जरा हो जाय, अथवा मंद रससे उदय आवे । १४. ज्ञानी लोग नई भूलें नहीं करते; इसलिये वे बंधरहित हो सकते हैं । १५. ज्ञानियोंने माना है कि देह अपनी नहीं है, वह रहनेवाली भी नहीं; कभी न कभी उसका वियोग तो होनेवाला ही है-इस भेद-विज्ञानको लेकर मानो हमेशा नगारा बज रहा हो, इस तरह ज्ञानीके कानमें सुनाई देता है, और अज्ञानीके कान बहरे होते हैं इसलिये वह उसे जानता नहीं। १६. ज्ञानी देहको नाशमान समझकर, उसका वियोग होनेपर उसमें खेद नहीं करता । परन्तु जिस तरह किसीकी वस्तु ले ली हो, और बादमें वापिस देनी पड़े, उसी तरह देहको वह उल्लाससे पोछ सौंप देता है-अर्थात् वह देहमें परिणति नहीं करता।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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