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________________ Uy श्रीमद् राजबन्द्र . [८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान १२. संक्रमण अपकर्ष उत्कर्ष आदि करणका नियम, जबतक आयुकर्मवर्गणा सत्तामें हो, तबतक लागू हो सकता है। परन्तु उदयका प्रारंभ होनेके बाद वह लागू नहीं पड़ सकता । १३. आयुकर्म पृथ्वीके समान है। और दूसरे फर्म वृक्षके समान हैं ( यदि पृथ्वी हो तो वृक्ष होता है)। १४. आयु दो प्रकारकी है:-सोपक्रम और निरुपक्रम । इसमेंसे जिस प्रकारकी आयु बाँधी हो, उसी तरहकी आयु भोगी जाती है। १५. उपशमसम्यक्त्व क्षयोपशम होकर क्षायिक होता है । क्योंकि उपशम सत्तामें है इसलिये यह उदय आकर क्षय होता है। . १६. चक्षु दो प्रकारकी होती है:-ज्ञानचक्षु और चर्मचक्षु । जैसे चर्मचक्षुसे एक वस्तु जिस स्वरूपसे दिखाई देती है, वह वस्तु दुरबीन सूक्ष्म-दर्शक आदि यंत्रोंसे भिन्न स्वरूपसे ही दिखाई देती है। वैसे ही चर्मचक्षुसे वह जिस स्वरूपसे दिखाई देती है, वह ज्ञानचक्षुसे किसी भिन्नरूपसे ही दिखाई देती है और उसी तरह कही जाती है। फिर भी उसे अपनी होशियारीसे-अहंभावसे-न मानना, यह योग्य नहीं। (४) आषाद सुदी ७, बुध. १९५६ १. श्रीमान् कुन्दकुन्द आचार्यने अष्टपाहुड़ (अष्टप्राभूत) की रचना की है। प्राभृतोंके भेदःदर्शनप्राभृत, ज्ञानप्रामृत, चारित्रप्रामृत इत्यादि । दर्शनप्राभूतमें जिनभावका स्वरूप बताया है। शास्त्रकर्ता कहते हैं कि अन्य भावोंको हमने, तुमने और देवाधिदेवोंतकने पूर्वमें सेवन किया है, और उससे कार्य सिद्ध नहीं हुआ । इसलिये जिनभावके सेवन करनेकी जरूरत है । वह जिनभाव शांत है, आत्माका धर्म है, और उसके सेवन करनेसे ही मुक्ति होती है। २. चारित्रप्राभूत . ३. जहाँ द्रव्य और उसकी पर्याय नहीं माने जाते; वहाँ उसमें विकल्प होनेसे 'उलझन हो जाती है । पर्यायोंको न माननेका कारण, उतने अंशको नहीं पहुँचना ही है। १. द्रन्यकी पर्याय हैं, यद्यपि यह स्वीकार किया जाता है; परन्तु वहाँ द्रव्यका स्वरूप समझने में विकल्प रहनेके कारण उलझन हो जाती है, और उससे ही भटकना होता है। ५. सिद्धपद द्रव्य नहीं है, परन्तु आत्माकी एक शुद्ध पर्याय है । वह पद पहिले जब मनुष्य या देवपद था, उस समय वही पर्याय थी । इस तरह द्रव्य शाश्वत रहकर पर्यायांतर होता है। ६. शान्तभाव प्राप्त करनेसे ज्ञान बढ़ता है। ७. आत्मसिद्धिके लिये द्वादशांगीका ज्ञान करते हुए बहुत समय चला जाता है। जब कि एक मात्र शांतभावके सेवन करनेसे वह तुरत ही प्राप्त हो जाता है। ८. पर्यायका स्वरूप समझनेके लिये श्रीतार्थकरदेवने त्रिपद (उत्पाद, व्यय और धौव्य) समझाये हैं। ९. द्रव्य ध्रुव-सनातन-है। १०. पर्याय उत्पादव्ययुक्त है। . लेखकसे हार नहीं लिया जा सका!-अनुवादक, ... . .. .. . . . . . . See
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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