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________________ ८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष ११. छहों दर्शन एक जैनदर्शनमें समाविष्ट हो जाते हैं । उसमें भी जैन एक दर्शन है। बौद्ध-क्षणिकवादी-पर्यायरूप सत् है । वेदान्त-सनातन द्रव्यरूपसे सत् है । चार्वाक-निरीश्वरवादी= जबतक आत्माकी प्रतीति नहीं हुई तबतक उसे पहिचाननेरूप सत् है । १२. (आत्मा) पर्यायके दो भेद हैं:-जीवपर्याय ( संसारावस्थामें ) और सिद्धपर्याय । सिद्धपर्याय सौ टंचके सोनेके समान है, और जीवपर्याय खोटसहित सोनेके समान है। १३. व्यंजनपर्याय १४. अर्थपर्याय १५. विषयका नाश (वेदका अभाव) क्षायिकचारित्रसे होता है। चौथे गुणस्थानकमें विषयकी मंदता.होती है, और नवमें गुणस्थानकतक वेदका उदय होता है । १६. जो गुण अपनेमें नहीं हैं, वे गुण अपनेमें हैं-जो ऐसा कहता अथवा मनवाता है, उसे मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये ।। १७. जिन और जैन शब्दका अर्थः घट घट अंतर जिन बसै, घट घट अंतर जैन । मति-मदिराके पानसौं, मतवारा समुझे न ॥ ( समयसार) १८. आत्माका सनातन धर्म शांत होना-विराम पाना है। समस्त द्वादशांगीका सार भी वही है। वह षड्दर्शनमें समा जाता है, और वह षड्दर्शन जैनदर्शनमें समाविष्ट होता है । १९. वीतरागके वचन विषयका विरेचन करानेवाले हैं। २०. जैनधर्मका आशय, दिगम्बर तथा श्वेताम्बर आचार्योंका आशय, और द्वादशांगीका आशय मात्र आत्माका सनातन धर्म प्राप्त करानेका है और वही साररूप है। इस बातमें किसी प्रकारसे ज्ञानियोंको विकल्प नहीं । वही तीनों कालमें ज्ञानियोंका कथन है, था, और होगा। २१. बाह्य विषयोंसे मुक्त होकर ज्यों ज्यों उसका विचार किया जाय, त्यों त्यों आत्मा विरत होती जाती है--निर्मल होती जाती है। २२. भंगजालमें पड़ना नहीं चाहिये । मात्र आत्माकी शांतिका विचार करना योग्य है। २३. ज्ञानी लोग यद्यपि वैश्योंकी तरह हिसाबी होते हैं (वैश्योंकी तरह कसर न खानेवाले होते हैं---अर्थात् सूक्ष्मरूपसे शोधनकर तस्त्रोंको स्वीकार करनेवाले होते हैं ), तो भी आखिर तो वे साधारण लोगों जैसे ही लोग ( किसान आदि-एक सारभूत बातको ही पकड़कर रखनेवाले ) होते हैं । अर्थात् अन्तमें चाहे कुछ भी हो जाय, परन्तु वे एक शांतभावको नहीं छोड़ते और समस्त द्वादशांगीका सार भी वही है। २४. ज्ञानी उदयको जानता है परन्तु वह साता असातामें परिणाम नहीं करता। २५. इन्द्रियोंके भोगसे मुक्ति नहीं । जहाँ इन्द्रियोंका भोग है वहाँ संसार है; और जहाँ संसार है वहाँ मुक्ति नहीं। २६. बारहवें गुणस्थानकतक ज्ञानीका पाश्रय लेना चाहिये-मानीकी आज्ञासे वर्तन करना चाहिये।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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