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________________ ८६४ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान] विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष ७७३ ९. जैसे परमाणुकी शक्ति पर्याय प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है, उसी तरह चैतन्यद्रव्यकी शक्ति विशुद्धता प्राप्त करनेसे बढ़ती जाती है। काँच, चश्मा, दुरबीन आदि पहिले (परमाणु) के अनुसार हैं; और अवधि, मनः पर्यव, केवलज्ञान, लब्धि, ऋद्धि वगैरह दूसरे ( चैतन्यद्रव्य ) के अनुसार हैं । ( ३ ) आषाढ़ सुदी ६ भौम. १९५६ १. क्षयोपशमसम्यक्त्वको वेदकसम्यक्त्व भी कहा जाता है । परन्तु क्षयोपशममेंसे क्षायिक होनेकी संधि के समयका जो सम्यक्त्व है, वही वास्तविक रीतिसे वेदकसम्यक्त्व है । २. पाँच स्थावर एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म दोनों हैं । वनस्पतिके सिवाय बाकीके चारमें असंख्यात सूक्ष्म कहे जाते हैं । निगोद सूक्ष्म अनंत हैं; और वनस्पतिके भी सूक्ष्म अनंत हैं; वहाँ निगोद में सूक्ष्म वनस्पति घटती है । ३. श्रीतीर्थकर ग्यारहवें गुणस्थानका स्पर्श नहीं करते, इसी तरह वे पहिले, दूसरे तथा तीसरेका भी स्पर्श नहीं करते । ४. वर्धमान, हीयमान और स्थित ऐसी जो तीन परिणामोंकी धारा है, उसमें हीयमान परिणामकी सम्यक्त्वसंबंधी ( दर्शनसंबंधी ) धारा श्रीतीर्थंकरदेवको नहीं होती; और चारित्रसंबंधी धाराकी भजना होती है । ५. जहाँ क्षायिकचारित्र है वहाँ मोहनीयका अभाव है; और जहाँ मोहनीयका अभाव है, वहाँ पहिला, दूसरा, तीसरा और ग्यारहवाँ इन चार गुणस्थानोंकी स्पर्शनाका अभाव है । ६. उदय दो प्रकारका है : - एक प्रदेशोदय और दूसरा विपाकोदय । विपाकोदय बाह्य ( दिखती हुई ) रीति से वेदन किया जाता है, और प्रदेशोदय भीतर से वेदन किया जाता है । ७. आयुकर्मका बंध प्रकृतिके बिना नहीं होता, परन्तु वेदनीयका होता है । ८. आयुप्रकृति एक ही भवमें वेदन की जाती है। दूसरी प्रकृतियाँ उस भवमें और दूसरे भवमें भी वेदन की जाती हैं । ९. जीव जिस भवकी आयुप्रकृतिका भोग करता है, वह समस्त भवकी एक ही बंधप्रकृति है । उस बंधप्रकृतिका उदय, जहाँसे आयुका आरंभ हुआ वहींसे गिना जाता है । इस कारण उस भवकी आयुप्रकृति उदयमें है; उसमें संक्रमण, उत्कर्ष, अपकर्ष आदि नहीं हो सकते । १०. आयुकर्मकी प्रकृति दूसरे भवमें नहीं भोगी जाती । ११. गति, जाति, स्थिति, संबंध, अवगाह ( शरीरप्रमाण) और रसको, अमुक जीवमें अमुक प्रमाणमें भोगनेका आधार आयुकर्मके ही ऊपर है। उदाहरणके लिये, किसी मनुष्यकी सौवर्ष की आयुकर्मप्रकृतिका उदय हो; और उसमेंसे यदि वह अस्सीवें वर्षमें अधूरी आयुमें मर जाय, तो फिर बाकीके बीस कहाँ और किस तरहसे भोगे जायेगे ? क्योंकि दूसरे भवमें तो गति, जाति, स्थिति, संबंध आदि सब नये सिरे से ही होते हैं - इक्यासीवें वर्षसे नहीं होते। इस कारण आयुउदय प्रकृति बीचमेंसे नहीं टूट सकती । जिस जिस प्रकारसे बंध पड़ा हो, उस उस प्रकारसे वह उदयमें आता है; इससे किसीको कदाचित् आयुका त्रुटित होना मालूम हो सकता है, परन्तु ऐसा बन नहीं सकता ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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