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________________ ८०८, ८०९, ८१०] विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष ७४७ उत्तरः-भाई ! मैं कबूल करता हूँ कि जैनधर्म ऐसे साधनोंका उपदेश करता है जिससे देशकी उन्नति हो। ऐसी सूक्ष्मतासे विवेकपूर्वक मैंने विचार नहीं किया था। हमने तो बालकपनमें पादरियोंकी पाठशालामें पढ़ते समय पड़े हुए संस्कारोंसे, बिना विचार किये ही ऐसा कह दिया थालिख मारा था। ___ महीपतरामने सरलतासे कबूल किया । सत्य-शोधनमें सरलताकी ज़रूरत है। सत्यका मर्म लेनेके लिये विवेकपूर्वक मर्ममें उतरना चाहिये । ८०० मोरबी, वैशाख सुदी २, १९५५ ज्योतिषको कल्पित समझकर उसको हमने त्याग दिया है। लोगोंमें आत्मार्थता बहुत कम हो गई है—वह नहींकी तरह रह गई है। इस संबंधमें स्वार्थके हेतुसे लोगोंने हमें कष्ट देना शुरू कर दिया । इसलिये जिससे आत्मार्थ साध्य न हो ऐसे इस विषयको कल्पित-असार्थकसमझकर हमने गौण कर दिया, उसका गोपन कर दिया। २. लोग किसी कार्यकी तथा उसके कर्ताकी प्रशंसा करते हैं, यह ठीक है । यह सब कार्यका पोषक तथा उसके कर्ताके उत्साहको बढ़ानेवाला है। परन्तु साथ साथमें इस कार्यमें जो कमी हो उसे भी विवेक और अभिमानरहितभावसे सभ्यतापूर्वक बताना चाहिये जिससे फिर कमीका अवकाश न रहे, और वह कार्य न्यूनतारहित होकर पूर्ण हो जाय । केवल प्रशंसा-गान करनेसे ही सिद्धि नहीं होती। इससे तो उन्टा मिथ्याभिभान ही बढ़ता है। वर्तमानके मानपत्र आदिमें यह प्रथा विशेष है। विवेक चाहिये। ३. परिग्रहधारी यतियोंका सन्मान करनेसे मिथ्यात्वको पोषण मिलता है-मार्गका विरोध होता है । दाक्षिण्य-सभ्यता की भी रक्षा करनी चाहिये । जीवको त्याग करना अच्छा नहीं लगता, कुछ करना अच्छा नहीं लगता, और उसे मिथ्या होशियारी होशियारीकी बातें करना है, मान छोड़ना नहीं; उससे आत्मार्थ सिद्ध नहीं होता। ८०९ मोरबी, वैशाख सुदी ६, १९५५ ॐ. ध्यान श्रुतके उपकारक साधनवाले चाहे जिस क्षेत्रमें चातुर्मासकी स्थिति होनेसे आज्ञाका अतिक्रम नहीं—ऐसा मुनिश्री...'आदिको सविनय कहना। जिस सत्श्रुतकी जिज्ञासा है, वह सत्श्रुत थोड़े दिनोंमें प्राप्त होना संभव है-ऐसा मुनिश्रीको निवेदन करना। वीतराग-सन्मार्गकी उपासनामें वीर्यको उत्साहयुक्त करना । ८१० ववाणीआ, वैशाख सुदी ७, १९५५ ॐ. गृहवासका जिसे उदय रहता है, वह यदि किसी भी शुभध्यानकी प्राप्तिकी इच्छा करता हो, तो उसके मूल हेतुभूत अमुक सदाचरणपूर्वक रहना योग्य है । उस अमुक नियममें न्यायसंपन्न आजीविकादि व्यवहार ' इस पहिले नियमको साध्य करना योग्य है। इस नियमके. साध्य होनेसे बहुतसे
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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