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________________ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र ८०६, ८.७ लोग धर्मको अथवा आनंदघनजीको पहिचान न सके-समझ न सके । अन्तमें श्रीआनंदघनजीको लगा कि प्रबलरूपसे व्याप्त विषमताके योगमें लोकोपकार, परमार्थप्रकाश करने में असरकारक नहीं होता, और आत्महित गौण होकर उसमें बाधा आती है। इसलिये आत्महितको मुख्य करके उसमें ही प्रवृत्ति करना योग्य है । इस विचारणासे अन्तमें वे लोकसंगको छोड़कर वनमें चल दिये । वनमें विचरते हुए भी वे अप्रगटरूपसे रहकर चौबीसपद आदिके द्वारा लोकोपकार तो कर ही गये हैं । निष्कारण लोकोपकार यह महापुरुषोंका धर्म है । प्रगटरूपसे लोग आनंदघनजीको पहिचान न सके । परन्तु आनंदघनजी अप्रगट रहकर उनका हित ही करते रहे। इस समय तो श्रीआनंदघन के समयकी अपेक्षा भी अधिक विषमता-वीतरागमार्गविमुखता-व्याप्त हो रही है। (२) श्रीआनंदधनजीको सिद्धांतबोध तीव्र था । वे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें थे । यदि 'चरण भाष्य सूत्र नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभव रे' इत्यादि पंचांगीका नाम उनके श्रीनमिनाथजीके स्तवनमें न आया होता, तो यह भी खबर न पड़ती कि वे श्वेताम्बर सम्प्रदायके थे या दिगम्बर सम्प्रदायके ! ८०७ मोरबी चैत्र वदी १५, १९५५ 'इस भारतवर्षकी अधोगति जैनधर्मसे हुई है-' ऐसा महीपतराम रूपराम कहते थे-लिखते थे। करीब दस बरस हुए उनका अहमदाबादमें मिलाप हुआ, तो उनसे पूछा: प्रश्नः-भाई ! जैनधर्म क्या अहिंसा, सत्य, मेल, न्याय, नीति, आरोग्यप्रद आहार-पान, अन्यसन, और उधम आदिका उपदेश करता है ! उत्तरः-हाँ ( महीपतरामने उत्तर दिया)। प्रश्न:-भाई | जैनधर्म क्या हिंसा, असत्य, चोरी, झट, अन्याय, अनीति, विरुद्ध आहारविहार, विषयलालसा, आलस-प्रमाद आदिका निषेध करता है ! महीपतराम-हाँ! प्रश्नः-देशकी अधोगति किससे होती है ! क्या अहिंसा, सत्य, मेल, न्याय, नीति, तथा जो आरोग्य प्रदान करे और उसकी रक्षा करे ऐसा शुद्ध सादा आहार-पान, और अन्यसन, उद्यम आदिसे देशकी अधोगति होती है ! अथवा उससे विपरीत हिंसा, असत्य, झट अन्याय, अनीति, तथा जो आरोग्यको बिगाड़े और शरीर-मनको अशक्त करे ऐसा विरुद्ध आहार-विहार, और व्यसन, मौज शौक, आलस-प्रमाद आदिसे देशकी अधोगति होती है। उत्तर:-दूसरेसे; अर्थात् विपरीत हिंसा, असत्य, झट, प्रमाद आदिसे ! प्रश्नः-तो फिर क्या इनसे उल्टे अहिंसा, सत्य, मेल, अव्यसन, उद्यम आदिसे देशकी उन्नति होती है ! उत्तरः-हाँ। प्रश्न:-तो क्या जैनधर्म ऐसा उपदेश करता है कि जिससे देशकी अधोगति हो। या वह ऐसा उपदेश करता है कि जिससे देशकी उन्नति हो! .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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