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________________ ७४८ श्रीमद् राजचन्द्र [८११,(८१२), ८१३, (८१४), ८१५ आत्मगुणोंके प्राप्त करनेका अधिकार उत्पन्न होता है । यदि इस प्रथम नियमके ऊपर ध्यान रक्खा जाय, और उस नियमको अवश्य सिद्ध किया जाय, तो कषाय आदि स्वभावसे मंद पड़ने योग्य हो जाती हैं, अथवा ज्ञानीका मार्ग आत्म-परिणामी होता है। उसके ऊपर ध्यान देना योग्य है । । ईडर, वैशाख वदी ६ मंगल. १९५५ उस क्षेत्रमें यदि निवृत्तिका विशेष योग हो, तो कात्तिकेयानुप्रेक्षाका बारम्बार निदिध्यासन करना चाहिये—ऐसा मुनिश्रीको विनयपूर्वक कहना योग्य है । जिन्होंने बाह्याभ्यंतर असंगता प्राप्त की है, ऐसे महात्माओंको संसारका अंत समीप है-ऐसा निस्सन्देह ज्ञानीका निश्चय है। ८१२ सर्व चारित्र वर्शाभूत करनेके लिये, सर्व प्रमाद दूर करनेके लिये, आत्मामें अखंडवृत्ति रहनेके लिये, मोक्षसंबंधी सब प्रकारके साधनोंका जय करनेके लिये, 'ब्रह्मचर्य' अद्भुत अनुपम सहकारी है, अथवा मूलभूत है। ८१३ ईडर, वैशाख वदी १० शनि. १९५५ ॐ. किसनदासजीकृत क्रियाकोष नामक पुस्तक मिली होगी । उसका आदिसे लगाकर अंततक अध्ययन करनेके पश्चात् , सुगम भाषामें एक तद्विषयक निबंध लिखनेसे विशेष अनुप्रेक्षा होगी; और वैसी क्रियाका आचरण भी सुगम है-यह स्पष्टता होगी, ऐसा संभव है। राजनगरमें परम तत्त्वदृष्टिका प्रसंगोपात्त उपदेश हुआ था; उसे अप्रमत्त चित्तसे बारंबार एकांतयोगमें स्मरण करना उचित है। ८१४ ॐ नमः सर्वज्ञ वीतरागदेव. सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भावका सर्व प्रकारसे जाननेवाला, और राग-द्वेष आदि सर्व विभाव जिसके क्षीण हो गये हैं, वह ईश्वर है। वह पद मनुष्यदेहमें प्राप्त हो सकता है । जो सम्पूर्ण वीतराग हो वह सम्पूर्ण सर्वज्ञ होता है। सम्पूर्ण वीतराग हुआ जा सकता है, ऐसे हेतु सुप्रतीत होते हैं। नडियाद, ज्येष्ठ १९५५ मंत्र तंत्र औषध नहीं, जेथी पाप पलाय । वीतरागवाणी विना अवर न कोई उपाय ॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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