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________________ ७३९ पत्र ७९३, ७९४] विविध पत्र आदि संग्रह-३२वाँ वर्ष चार घातियोंका धर्म आत्माके गुणका घात करना है; अर्थात् उनका धर्म उस गुणको आवरण करनेका, उस गुणके बल-वीर्यको रोकनेका, अथवा उसे विकल कर देनेका है; और इसलिये उस प्रकृतिको घातिसंज्ञा दी है। जो आत्माके गुण ज्ञान और दर्शनको आवरण करे, उसे अनुक्रमसे ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय नाम दिया है। अंतराय प्रकृति इस गुणका आवरण नहीं करती, परन्तु वह उसके भोग उपभोग आदिको-- उसके वीर्य-बलको-रोकती है । इस जगह आत्मा भोग आदिको समझती है, जानती-देखती है, इसलिये उसे आवरण नहीं रहता। परन्तु उसके समझते हुए भी, वह प्रकृति भोग आदिमें विघ्नअंतराय-करती है। इसलिये उसे आवरण न कहकर अंतराय प्रकृति कहा है । . इस तरह आत्मघातिकी तीन प्रकृतियाँ हुई । घातिकी चौथी प्रकृति मोहनीय है । यह प्रकृति आवरण नहीं करती, परन्तु आत्माको मूर्छित कर-मोहित कर-उसे विकल कर देती है; ज्ञान-दर्शन होनेपर भी-अंतराय न होनेपर भी-आत्माको वह कभी भी विकल कर देती है, वह उल्टा पट्टा बँधा देती है, व्याकुल कर देती है, इसलिये इसे मोहनीय कहा है। इस तरह ये चारों सर्वघातिकी प्रकृतियाँ कहीं। . दूसरी चार प्रकृतियाँ, यद्यपि आत्माके प्रदेशोंके साथ संबद्ध हैं, वे अपना काम किया करती हैं, और उदयानुसार वेदन की जाती हैं, तथापि वे उस आत्माके गुणको आवरण करनेरूप, अथवा अंतराय करनेरूप, अथवा उसे विकल करनेरूप घातक नहीं, इसलिये उन्हें अघातिकी ही प्रकृति कहा है। - - ७९३ मोरबी, फाल्गुन सुदी १ रवि. १९५५ ॐ नमः (१) नाकेरूप निहाळता-इस चरणका अर्थ वीतरागमुद्राका सूचक है । रूपावलोकन दृष्टिसे स्थिरता प्राप्त होनेपर स्वरूपावलोकन दृष्टिमें भी सुगमता होती है। दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे स्वरूपावलोकन दृष्टि होती है । महत्पुरुषोंका निरन्तर अथवा विशेष समागम, वीतरागश्रुतचितवन, और गुण-जिज्ञासा, ये दर्शनमोहके अनुभाग घटनेके मुख्य हेतु हैं । उससे स्वरूपदृष्टि सहजमें ही होती है। (२) जीव यदि शिथिलता घटानेका उपाय करे तो वह सुगम है । वीतरागवृत्तिका अभ्यास रखना। ७९४ ववाणीआ, फाल्गुन वदी १० बुध. १९५५ आत्मार्थीको बोध कब फलीभूत हो सकता है, इस भावको स्थिर चिससे विचारना चाहिये, वह मूलस्वरूप है। अमुक असवृत्तियोंका प्रथम अवश्य ही निरोध करना चाहिये । इस निरोधके हेतुका दृढ़तासे अनुसरण करना चाहिये; उसमें प्रमाद करना योग्य नहीं | ॐ.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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