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________________ ७४० भीमद् राजचन्द्र [पत्र ७९५, ७९६, ७९७ ७९५ ववाणीआ, फाल्गुन वदी १५, १९५५ xचरमावर्त हो चरमकरण तथा, भवपरिणति परिपाक रे । दोष टळे ने दृष्टि खुले भली, पापति प्रवचनवाक रे ॥१॥ परिचय पातिकघातक साधुशू, अकुशल अपचय चेत रे । ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी, परिशीलन नय हेत रे ॥२॥ मुग्ध सुगम करी सेवन लेखवे, सेवन अगम अनूप रे । देजो कदाचित सेवक याचना, आनंदघनरसरूप रे ॥३॥ - संभवजिन-स्तवन -आनंदघन, ७९६ ववाणीआ, चैत्र सुदी १, १९५५. उवसंतखीणमोहो, मग्गे जिणभासिदेण समुवगदो । णाणाणुमग्गचारी, निव्वाणपुरं वज्जदि धारो॥ -जिसका दर्शनमोह उपशांत अथवा क्षीण हो गया है, ऐसा धीर पुरुष वीतरागोंद्वारा प्रदर्शित मार्गको अंगीकार कर, शुद्ध चैतन्यस्वभाव परिणामी होकर मोक्षपुरीको जाता है। ७९७ ववाणीआ, चैत्र सुदी ५, १९५५ ॐ. द्रव्यानुयोग परम गंभीर और सूक्ष्म है, निम्रन्थ प्रवचनका रहस्य है, और शुक्लध्यानका अनन्य कारण है । शुक्लध्यानसे केवलज्ञान समुत्पन्न होता है। महाभाग्यसे ही उस द्रव्यानुयोगकी प्राप्ति होती है। दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे अथवा नाश होनेसे, विषयोंके प्रति उदासीनतासे और महान् पुरुषोंके चरण-कमलकी उपासनाके वलसे द्रव्यानुयोग फल देता है। ज्यों ज्यों संयम वर्धमान होता है, त्यों त्यों द्रव्यानुयोग यथार्थ फल देता है। संयमकी वृद्धिका कारण सम्यग्दर्शनकी निर्मलता है । उसका कारण भी द्रव्यानुयोग होता है । सामान्यरूपसे द्रव्यानुयोगकी योग्यता प्राप्त करना दुर्लभ है। आत्माराम-परिणामी, परम वीतराग-दृष्टिवंत और परमअसंग ऐसे महात्मा पुरुष उसके मुख्य पात्र हैं। xउसे ( जिसे अभय और अखेद प्राप्त हो गये हैं ) संसारमें भ्रमण करनेका अन्तिम फेरा ही बाकी रह जाता है, उसे अन्तिम अपूर्व और अनिवृत्ति नामके करण होते हैं, और उसकी भव-परिणतिका परिपाक हो जाता है। उसी समय दोष दूर होते हैं, उत्तम दृष्टि प्रकट होती है, तथा प्रवचन-वाणीकी प्राप्ति होती है ॥१॥ . पापोंका नाश करनेवाले साधुओका परिचय करनेसे चित्तके अकुशलभावका नाश होता है। तथा ऐसा होनेसे अध्यात्मग्रंथोंके श्रवण मननसे, नयोंका विचार करते हुए भगवान्के स्वरूपके साथ अपने आत्मस्वरूपकी समस्त प्रकारसे सहशता होकर निजस्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥२॥ भोले लोग भगवान्की सेवाको सुगम समझकर उसका सेवन करते हैं, परन्तु वह सेवा तो अगम और अनुपम है । इसलिये हे आनंदघनरसरूप प्रभु ! इस सेवकको भी कभी वह सेवा प्रदान करना ! यही याचना है ॥३॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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