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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [ पत्र ७८८, (७८९),७९०, (७९१), ७९२ ७८८ ईडर, मंगसिर वदी १५ गुरुवार की सबेरे १९५५ ॐ नमः वनस्पतिसंबंधी त्यागमें, अमुक दससे पाँच वनस्पतियोंकी हालमें छूट रखकर, बाकीकी दूसरी वनस्पतियों से विरक्त होनेसे आज्ञाका अतिक्रम नहीं । सद्देव, सद्गुरु, सत्शाखकी भक्ति अप्रमत्तरूपसे उपासनीय है । श्री ॐ. ७३८ ७८९ मैं प्रत्यक्ष निज अनुभवस्त्ररूप हूँ, इसमें संशय ही क्या ? उस अनुभव में जो विशेषविषयक न्यूनाधिकता होती है, वह यदि दूर हो जाय तो केवल अखंडाकार स्वानुभव स्थिति रहे । • अप्रमत्त उपयोग में वैसा हो सकता है। अप्रमत्त उपयोग होनेके हेतु सुप्रतीत हैं । उस तरह वर्त्तन किया जाता है, यह प्रत्यक्ष प्रतीत है। वैसी अविच्छिन्न धारा रहे, तो अद्भुत अनंत ज्ञानस्वरूप अनुभव सुस्पष्ट समवस्थित रहे । ७९० ईडर, पौष सुदी १५ गुरु. १९५५ ( १ ) वसोमें ग्रहण किये हुए नियमानुसार " 'को हरियाली में विरतिभावसे आचरण करना चाहिये। दो श्लोकोंके याद करनेके नियमको शारीरिक उपद्रवविशेषके बिना हमेशा निबाहना चाहिये । गेहूँ और धीको शारीरिक हेतुसे ग्रहण करनेमें आज्ञाका अतिक्रम नहीं । (२) यदि कुछ दोष लग गया हो तो उसका प्रायश्चित्त श्री .......मुनि आदिके समीप लेना योग्य है । (३) मुमुक्षुओंको उन मुनियोंके समीप नियमादिका ग्रहण करना चाहिये । ७९१ प्रवृत्तिके कार्यों के प्रति विरति । संग और स्नेह - पाशको तोड़ना (अतिशय कठिन होते हुए भी उसे तोड़ना, क्योंकि दूसरा कोई उपाय नहीं है ) । आशंकाः – जो अपनेपर स्नेह रखता है, उसके प्रति ऐसी क्रूर दृष्टिसे वर्त्तन करना, क्या वह कृतघ्नता अथवा निर्दयता नहीं है ? समाधान:----- ७९२ मोरबी, माघ वदी ९ सोम. (रात) १९५५ कर्मकी मूल प्रकृतियाँ आठ हैं। उनमें चार घातिकी और और चार अघातिकी कही जाती हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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