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________________ ७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष ७०७ १०८. यहाँ ऐसी शंका की जा सकती है कि यदि पाँच इन्द्रियाँ और छट्ठा मन तथा पाँच स्थावरकाय और छट्ठा त्रसकाय इस तरह बारह प्रकारसे विरतिका ग्रहण किया जाय, तो लोकमें रहनेवाले जीव और अजीव नामकी राशिके जो दो समूह हैं, उनमेंसे पाँच स्थावरकाय और छट्ठा त्रसकाय मिलकर जीवराशिकी तो विरति हो गई, परन्तु लोकमें भटकानेवाली जो अजीवराशि है, जो जीवसे भिन्न है, जबतक उसके प्रति प्रीतिकी इसमें निवृत्ति नहीं आती, तबतक उसे विरति किस तरह समझा जा सकता है ! इसका समाधान यह है कि पाँच इन्द्रियाँ और छडे मनसे जो विरति करना है, उसके विरतिभावमें अजीवराशिकी भी विरति आ जाती है। १०९. पूर्वमें इस जीवने ज्ञानीकी वाणीको निश्चयरूपसे कभी भी नहीं सुना, अथवा उस वाणीको सम्यक् प्रकारसे सिरपर धारण नहीं किया ऐसा सर्वदर्शीने कहा है। . ११०. सद्गुरुद्वारा उपदिष्ट यथोक्त संयमको पालते हुए-सद्गुरुकी आज्ञासे चलते हुए-पापसे विरति होती है, और जीव अभेद्य संसार-समुद्रसे पार हो जाता है । १११. वस्तुस्वरूप कितने ही स्थानकोंमें आज्ञासे प्रतिष्ठित है, और कितने ही स्थानकोंमें वह सद्विचारपूर्वक प्रतिष्ठित है। परन्तु इस दुःषमकालकी इतनी अधिक प्रबलता है कि इससे आगेके क्षणमें भी विचारपूर्वक प्रतिष्ठित होनेके लिये जीव किस तरह प्रवृत्ति करेगा, यह जाननेकी इस कालमें शक्ति नहीं मालूम होती; इसलिये वहाँ आज्ञापूर्वक ही प्रतिष्ठित रहना योग्य है। ११२. ज्ञानीने कहा है कि 'समझो ! क्यों समझते नहीं ! फिर ऐसा अवसर मिलना दुर्लभ है ?' ११३. लोकमें जितने भी पदार्थ हैं, उनके धर्मोंका, देवाधिदेवने, अपने ज्ञानमें भासित होनेके कारण, यथार्थ वर्णन किया है । पदार्थ कुछ उन धमोसे बाहर जाकर नहीं रहते । अर्थात् जिस तरह ज्ञानीमहाराजने उन्हें प्रकाशित किया है, उससे भिन्न प्रकारसे वे नहीं रहते । इस कारण वे ज्ञानीकी आज्ञनुसार ही प्रवर्तते हैं, ऐसा कहा है । कारण कि ज्ञानीने पदार्थका जैसा धर्म था उसे उसी तरह कहा है। ११४. काल मूल द्रव्य नहीं है, वह औपचारिक द्रव्य है; और वह जीव तथा अजीव ( अजीवमें मुख्यतया पुद्गलास्तिकायमें विशेषरूपसे समझमें आता है ) मेंसे उत्पन्न होता है । अथवा जीवाजीवकी पर्याय-अवस्था ही काल है । हरेक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें ऊर्ध्वप्रचय और तिर्यकप्रचय नामके भी दो धर्म हैं; और कालमें तिर्यक्प्रचय नहीं है, उसमें केवल ऊर्ध्वप्रचय ही है। ११५. ऊर्ध्वप्रचयसे पदार्थमें जो धर्मका उद्भव होता है, उस धर्मका तिर्यक्प्रचयसे फिर उसीमें समावेश हो जाता है । कालके समयको तिर्यक्प्रचय नहीं है, इस कारण जो समय चला गया वह फिर पीछे नहीं आता। ११६. दिगम्बरमतके अनुसार कालद्रव्यके लोकमें असंख्यात अणु हैं। ११७. हरेक द्रव्यके अनंत धर्म हैं। उनमें कितने ही धर्म व्यक्त हैं, कितने ही अव्यक्त हैं, कितने ही मुख्य हैं, कितने ही सामान्य हैं, और कितने ही विशेष हैं। ११८. असंख्यातको असंख्यातसे गुणा करनेपर भी असंख्यात ही होते हैं, अर्थात् असंख्यातके असंख्यात भेद हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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