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________________ ७०८ • श्रीमद् राजचन्द्र [७५३ व्याख्यानसार ११९. एक अंगुलके असंख्यात भाग–अंश-प्रदेश-एक अंगुलमें असंख्यात होते हैं। लोकके भी असंख्यात प्रदेश होते हैं । उन्हें चाहे किसी भी दिशाकी समश्रेणीसे गिनो वे असंख्यात ही होते हैं । इस तरह एकके बाद एक दूसरी तीसरी समश्रेणीका योग करनेसे जो योगफल आता है वह एकगुना, दोगुना, तीनगुना, चारगुना होता है; परन्तु असंख्यातगुना नहीं होता। किन्तु एक समश्रेणी-जो असंख्यात प्रदेशवाली है-उस समश्रेणीकी दिशावाली समस्त समश्रेणियोंको-जो असं. ख्यातगुणी हैं-हरेकको असंख्यातसे गुणा करनेसे; इसी तरह दूसरी दिशाकी समश्रेणीका गुणा करनेसे, और इसी तरह उक्त रीतिसे तीसरी दिशाकी समश्रेणीका गुणा करनेसे असंख्यात होते हैं। इन असंख्यातके भागोंका जबतक परस्पर गुणाकार किया जा सके, तबतक असंख्यात होते हैं; और जब उस गुणाकारसे कोई गुणाकार करना बाकी न रहे, तब असंख्यात पूरे हो जानेपर उसमें एक मिला देनेसे जघन्यातिजघन्य अनंत होते हैं। १२० नय प्रमाणका एक अंश है । जिस नयसे जो धर्म कहा गया है वहाँ उतना ही प्रमाण है। इस नयसे जो धर्म कहा गया है उसके सिवाय, वस्तुमें जो दूसरे और धर्म हैं उनका निषेध नहीं किया गया । क्योंकि एक ही समय वाणीसे समस्त धर्म नहीं कहे जा सकते । तथा जो जो प्रसंग होता है, उस उस प्रसंगपर वहाँ मुख्यतया वही धर्म कहा जाता है। उस उस स्थलपर उस उस नयसे प्रमाण समझना चाहिये। १२१. नयके स्वरूपसे दूर जाकर जो कुछ कहा जाता है वह नय नहीं है, परन्तु नयाभास है; और जहाँ नयाभास है वहाँ मिथ्यात्व ठहरता है। १२२. नय सात माने हैं। उनके उपनय सातसौ हैं, और विशेष भेदोंसे वे अनंत हैं; अर्थात् जितने वचन हैं वे सब नय ही हैं। १२३. एकांत ग्रहण करनेका स्वच्छंद जीवको विशेषरूपसे होता है, और एकांत ग्रहण करनेसे नास्तिकभाव होता है । उसे न होने देनेके लिये इस नयका स्वरूप कहा गया है। इसके समझ जानेसे जीव एकांतभावको ग्रहण करता हुआ रुककर मध्यस्थ रहता है, और मध्यस्थ रहनेसे नास्तिकताको अवकाश नहीं मिल सकता। १२४. नय जो कहनेमें आता है, सो नय स्वयं कोई वस्तु नहीं है । परन्तु वस्तुका स्वरूप समझने तथा उसकी सुप्रतीति होनेके लिये वह केवल प्रमाणका अंश है। १२५. यदि अमुक नयसे कोई बात कही जाय, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि दूसरे नयसे प्रतीत होनेवाले धर्मका अस्तित्व ही नहीं है। १२६. केवलज्ञान अर्थात् मात्र ज्ञान ही; इसके सिवाय दूसरा कुछ नहीं । फिर उसमें अन्य कुछ भी गर्मित नहीं होता । जब सर्वथा सर्व प्रकारसे राग-द्वेषका क्षय हो जाय, उसी समय केवलज्ञान कहा जाता है । यदि किसी अंशसे राग-द्वेष हों तो वह चारित्रमोहनीयके कारणसे ही होते हैं। जहाँ जितने अंशसे राग-द्वेष हैं, वहाँ उतने ही अंशसे अज्ञान है। इस कारण वे केवलज्ञानमें गर्मित नहीं हो सकते; अर्थात् वे केवलज्ञानमें नहीं होते। वे एक दूसरेके प्रतिपक्षी है। जहाँ केवलझान है वहाँ राग-रेष नही, अथवा जहाँ राग-द्वेष हैं वहाँ केवलज्ञान नहीं है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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