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________________ ७०६ श्रीमद् राजवन्द्र [७५३ व्याख्यानसार पापक्रिया चालू रहेगी । उस विचार किये हुए पदार्थसे अव्यक्तरूपसे भी होनेवाली क्रियासे यदि मुक्त होना हो तो मोहभाव छोड़ना चाहिये । मोह छोड़नेसे अर्थात् विरतिभाव करनेसे पापक्रिया बंद हो जाती है । उस विरतिभावको यदि उसी भवमें ग्रहण किया जाय तो वह पापक्रिया, जबसे जीव विरतिभावको ग्रहण करे, तभीसे आती हुई रुक जाती है । यहाँ जो पापक्रिया लगती है वह चारित्रमोहनीयके कारणसे ही लगती है; और वह मोहभावके क्षय होनेसे आती हुई रुक जाती है । १०३. क्रिया दो प्रकारकी होती है-एक व्यक्त अर्थात् प्रगट, और दूसरी अव्यक्त अर्थात् अप्रगट । अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रिया यद्यपि सम्पूर्णरूपसे नहीं जानी जा सकती, परन्तु इसलिये वह होती ही नहीं, यह बात नहीं है। १०४ पानीमें जो लहरें-हिल्लारें-उठती हैं वे व्यक्तरूपसे मालूम होती हैं; परन्तु उस पानीमें यदि गंधक अथवा कस्तूरी डाल दी हो, और वह पानी शान्त अवस्थामें हो तो भी उसमें जो गंधक अथवा कस्तूरीकी क्रिया है, वह यद्यपि दिखाई नहीं देती, तथापि वह उसमें अव्यक्तरूपसे मौजूद रहती ही है। इस तरह अव्यक्तरूपसे होनेवाली क्रियाका यदि श्रद्धान न किया जाय, और केवल व्यक्तरूप क्रियाका ही श्रद्धान हो, तो जिसमें अविरतिरूप क्रिया नहीं होती ऐसे ज्ञानीकी क्रिया, और जो व्यक्तरूपसे कुछ भी क्रिया नहीं करता ऐसे सोते हुए मनुष्यकी क्रिया, ये दोनों समान ही हो जायगी । परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो यह बात नहीं । सोते हुए मनुष्यको अव्यक्त क्रिया रहती ही है; तथा इसी तरह जो मनुष्य (जो जीव ) चारित्रमोहनीयकी निद्रामें सो रहा है, उसे अव्यक्त क्रिया न रहती हो, यह बात नहीं है । यदि मोहभावका क्षय हो जाय तो ही अविरतिरूप चारित्रमोहनीयकी क्रिया बंद होती है । उससे पहिले वह बंद नहीं होती। क्रियासे होनेवाला बंध मुख्यतया पाँच प्रकारका है:मिथ्यात्व अविरति कषाय प्रमाद योग. १५ १०५. जबतक मिथ्यात्वकी मौजूदगी हो तबतक अविरतिभाव निर्मूल नहीं होता-नाश नहीं होता । परन्तु यदि मिथ्यात्वभाव दूर हो जाय तो अविरतिभावको दूर होना ही चाहिये, इसमें सन्देह नहीं। कारण कि मिथ्यात्वसहित विरतिभावका ग्रहण करनेसे मोहभाव दूर नहीं होता । तथा जबतक मोहभाव कायम है तबतक अभ्यंतर विरतिभाव नहीं होता । और मुख्यरूपसे रहनेवाले मोहभावके नाश होनेसे अभ्यंतर अविरतिभाव नहीं रहता; और यद्यपि बाह्य अविरतिभावका ग्रहण न किया गया हो, तो भी जो अभ्यंतर है वह सहज ही बाहर आ जाता है। १०६. अभ्यंतर विरतिभावके प्राप्त होने पश्चात् , उदयाधीन बाह्यभावसे कोई विरतिभावका ग्रहण न कर सके, तो भी जब उदयकाल सम्पूर्ण हो जाय उस समय सहज ही विरतिभाव रहता है। क्योंकि अभ्यंतर विरतिभाव तो पहिलेसे ही प्राप्त है । इस कारण अब अविरतिभाव नहीं है, जो अविरतिभावकी क्रिया कर सके। १०७. मोहभावको लेकर ही मिथ्यात्व है । मोहभावका क्षय हो जानेसे मिथ्यात्वका प्रतिपक्ष सम्यकभाष प्रगट होता है । इसलिये वहाँ मोहभाव कैसे हो सकता है ! अर्थात् नहीं होता।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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