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________________ ७०० श्रीमद् राजचन्द्र [७५३ व्याख्यानसार ६२. आत्मज्ञान अथवा आत्मासे भिन्न कर्मस्वरूप अथवा पुद्गलास्तिकाय वगैरहका जो भिन्न भिन्न प्रकारसे, भिन्न भिन्न प्रसंगपर, अत्यन्त सूक्ष्मसे सूक्ष्म और अति विस्तृत स्वरूप ज्ञानीद्वारा प्रकाशित हुआ है, उसमें कोई हेतु गर्भित है या नहीं ? और यदि गर्मित है तो वह कौनसा है ?. उस संबंधमें विचार करनेसे उसमें सात कारण गर्भित मालूम पड़ते हैं:--सद्धृतार्थप्रकाश, उसका विचार, उसकी प्रतीति, जीव-संरक्षण वगैरह । उन सात हेतुओंका फल मोक्षकी प्राप्ति होना है । तथा मोक्षकी प्राप्तिका जो मार्ग है वह इन हेतुओंसे सुप्रतीत होता है। ६३. कर्मके अनंत भेद हैं। उनमें मुख्य १५८ हैं । उनमें मुख्य आठ कर्म प्रकृतियोंका वर्णन किया गया है। इन सब कर्मोंमें मुख्य कर्म मोहनीय है; इसकी सामर्थ्य दूसरोंकी अपेक्षा अत्यंत है, और उसकी स्थिति भी सबकी अपेक्षा अधिक है । ६४. आठ कौमें चार कर्म घनघाती हैं । उन चारोंमें भी मोहनीय अत्यन्त प्रबलरूपसे घनघाती है । मोहनीय कर्मके सिवाय जो बाकीके सात कर्म हैं वे मोहनीय कर्मके प्रतापसे ही प्रबल होते हैं। यदि मोहनीय दूर हो जाय तो दूसरे कर्म भी निर्बल हो जाते हैं । मोहनीयके दूर होनेसे दूसरोंका पैर नहीं टिक सकता । ६५. कर्मबंधके चार प्रकार हैं:-प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध और रसबंध । उनमें प्रदेश स्थिति और रस इन तीन बंधोंके ऐक्यका नाम प्रकृतिबंध रक्खा गया है । आत्माके प्रदेशोंकी साथ पुद्गलके जमाव-संयोग-को प्रदेशबंध कहते हैं । वहाँ उसकी प्रबलता नहीं होती; उसे दूर करना चाहें तो दूर कर सकते हैं । तथा मोहके कारण स्थिति और रसका बंध पड़ता है, और उस स्थिति तथा रसका जो बंध है, उसे जीव यदि बदलना चाहे तो उसका बदला जा सकना असंभव है । ऐसे मोहके कारण इस स्थिति और रसकी प्रबलता है। ६६. सम्यक्त्व अन्योक्तिसे अपना दूषण बताता है: 'मुझे ग्रहण करनेके बाद यदि ग्रहण करनेवालेकी इच्छा न हो तो भी मुझे उसे बलपूर्वक मोक्ष ले ही जाना पड़ता है । इसलिये मुझे ग्रहण करनेके पहिले यह विचार करना चाहिये कि यदि मोक्ष जानेकी इच्छाको बदलना होगा तो भी वह कुछ काम आनेवाली नहीं। क्योंकि मुझे ग्रहण करनेके पश्चात् नौवें समयमें मुझे उसे मोक्षमें पहुँचाना ही चाहिये । यदि ग्रहण करनेवाला कदाचित् शिथिल हो जाय, तो भी हो सके तो उसी भवमें और नहीं तो अधिकसे अधिक पन्दरह भवोंमें, मुझे उसे अवश्य मोक्ष पहुँचाना चाहिये । यदि कदाचित् वह मुझे छोड़कर मेरेसे विरुद्ध आचरण करे अथवा अत्यंत प्रबल मोहको धारण कर ले, तो भी अर्धपुद्गल-परावर्तनके भीतर तो मुझे उसे अवश्य मोक्ष पहुँचाना चाहिये ही-यह मेरी प्रतिज्ञा है'। अर्थात् यहाँ सम्यक्त्वकी महत्ता बताई है। ६७. सम्यक्त्व केवलज्ञानसे कहता है: • मैं इतनातक कर सकता हूँ कि जीवको मोक्ष पहुँचा दूं, और तू उससे कुछ विशेष कार्य नहीं कर सकता । तो फिर तेरे मुकाबलेमें मुझमें किस बातकी न्यूनता है ! इतना ही नहीं किन्तु तुझे प्राप्त करनेमें मेरी जरूरत रहती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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