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________________ ७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र आदि संग्रह-३१वाँ वर्ष ७०१ ६८. किसी ग्रंथ आदिका बाँचन शुरू करते हुए, पहिले मंगलाचरण करना चाहिये; और उस ग्रंथको फिरसे बाँचते हुए अथवा चाहे कहींसे भी उसका बाँचन शुरू करनेके पहिले मंगलाचरण करनेकी शास्त्रपद्धति है । उसका मुख्य कारण यह है कि बाह्यवृत्तिमेंसे आत्मवृत्ति करना है, इसलिये वैसा करनेमें प्रथम शांतभाव करनेकी जरूरत है, और तदनुसार प्रथम मंगलाचरण करनेसे शांतभाव प्रवेश करता है । बाँचन करनेका जो क्रम हो उसे यथाशक्ति कभी भी न तोड़ना चाहिये । उसमें ज्ञानीका दृष्टांत लेनेकी जरूरत नहीं है। ६९. आत्मानुभव-गम्य अथवा आत्मजनित सुख और मोक्षसुख ये सब एक ही हैं। मात्र शब्द जुदा जुदा हैं। ७०. शरीरके कारण अथवा दूसरोंके शरीरकी अपेक्षा उनका शरीर विशेषतावाला देखनेमें आता है, कुछ इसलिये केवलज्ञानी केवलज्ञानी नहीं कहे जाते । तथा वह केवलज्ञान कुछ शरीरसे पैदा हुआ है, यह बात भी नहीं हैं । वह तो आत्माद्वारा प्रगट किया गया है । इस कारण उसकी शरीरसे विशेषता समझनेका कोई हेतु नहीं है; और विशेषतावाला शरीर लोगोंके देखनेमें नहीं आता, इसलिये लोग उसका बहुत माहात्म्य नहीं जान सकते । ७१. जिसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी अंशसे भी खबर नहीं, वह जीव यदि केवलज्ञानके स्वरूपकी जाननेकी इच्छा करे तो वह किस तरह बन सकता है ! अर्थात् वह नहीं बन सकता। : ७२. मतिके स्फुरायमान होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान है; और श्रवण होनेसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान है; और श्रुतज्ञानका मनन होकर जो उसका अनुभव होता है वह पीछे मतिज्ञान हो जाता है; अथवा उस श्रुतज्ञानका अनुभव होनेके बाद यदि वह दूसरेको कहा जाय, तो उससे कहनेवालेको मतिज्ञान और सुननेवालेको श्रुतज्ञान होता है । तथा श्रुतज्ञान मतिके बिना नहीं हो सकता, और वही मतिपूर्वक श्रुत समझना चाहिये । इस तरह एक दूसरेका कार्य-कारण संबंध है । उनके अनेक भेद हैं। उन सब भेदोंको जैसे चाहिये वैसे हेतुपूर्वक तो समझा नहींक्योंकि हेतुपूर्वक जानना समझना कठिन है तथा इसके अतिरिक्त आगे चलकर रूपी पदार्थीको जाननेवाले अनेक भेदयुक्त अवधिज्ञानको, और रूपी पदार्थोको जाननेवाले मनःपर्यवज्ञानको जानने समझनेकी जिसकी किसी अंशसे भी शक्ति नहीं, ऐसे मनुष्य पर और अरूपी पदार्थोंके समस्त भावोंसे जाननेवाले केवलज्ञानके विषयमें जाननेका-समझनेका प्रश्न करें, तो वे उसे किस तरह समझ सकते हैं ? अर्थात् नहीं समझ सकते। ७३. ज्ञानीके मार्गमें चलनेवालेको कर्मबंध नहीं है । तथा उस ज्ञानीकी आज्ञानुसार चलनेवालेको भी कर्मबंध नहीं होता । क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदिका वहाँ अभाव है और उस अभावके कारण कर्मबंध नहीं होता । तो भी 'इरियापंथ ' में चलनेसे ज्ञानीको । इरियापंथ' की क्रिया होती है, और ज्ञानीकी आज्ञानुसार चलनेवालेको भी वह क्रिया होती है। ७४. जिस विद्यासे जीव कर्म बाँधता है, उसी विद्यासे जीव कर्म छोड़ता भी है।. ७५. उसी विद्याका सांसारिक हेतुके प्रयोजनसे विचार करनेसे जीव कर्मबंध करता है, और जीव जब उसी विधाका द्रव्यके स्वरूपको समझनेके प्रयोजनसे विचार करता है तो यह कर्म छोड़ता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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