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________________ ७५३ व्याख्यानसार] विविध पत्र मादि संग्रह-३१वाँ वर्ष ५४. मतिकी निर्मलता संयमके बिना नहीं हो सकती । वृत्तिको रोकनेसे संयम होता है, और उस संयमसे मतिकी शुद्धता होकर अनुमानके बिना शुद्ध पर्यायको जाननेका नाम मनःपर्यवज्ञान है । ५५. मतिज्ञान लिंग-चिह्न-से जाना जा सकता है। और मनःपर्यवज्ञानमें लिंग अथवा चिह्नकी आवश्यकता नहीं रहती। ५६. मतिज्ञानसे जाननेमें अनुमानकी आवश्यकता रहती है, और उस अनुमानकी सहायतासे जो ज्ञान होता है, उसमें फेरफार भी होता है । परन्तु मनःपर्यवज्ञानमें वैसा फेरफार नहीं होता । क्योंकि उसमें अनुमानकी सहायताकी जरूरत नहीं है । शरीरकी चेष्टासे क्रोध आदिकी परीक्षा हो सकती है, परन्तु जिससे क्रोधादिका मूलस्वरूप ही मालूम न हो सके, उसके लिये यदि विपरीत चेष्टा की गई हो, तो उसके ऊपरसे क्रोध आदिकी परीक्षा करना कठिन है । तथा यदि शरीरकी किसी भी तरहकी चेष्टा न की गई हो, तो चेष्टाके बिलकुल देखे बिना ही क्रोध आदिका जानना बहुत कठिन है; फिर भी उसका साक्षात्कार हो सकना मनःपर्यवज्ञानका विषय है। ५७. लोगोंमें ओघसंज्ञासे प्रचलित रूढिके अनुसार यह माना जाता है कि हमें सम्यक्त्व है या नहीं, इसे तो केवली जाने, निश्चय सम्यक्त्व होनेकी बात तो केवलीगम्य ही है;' परन्तु बनारसीदास और उस दशाके अन्य पुरुष ऐसा कहते हैं कि "हमें सम्यक्त्व हो गया है, यह हम निश्चयसे कहते हैं।" ५८. शास्त्रमें जो ऐसा कहा गया है कि 'निश्चय सम्यक्त्व है या नहीं, उसे केवली जाने' सो यह बात अमुक नयसे ही सत्य है । तथा केवलज्ञानीसे भिन्न बनारसीदास वगैरहने भी जो अस्पष्टरूपसे ऐसा कहा है कि " हमें सम्यक्त्व है, अथवा हमें सम्यक्त्व प्राप्त हो गया है, " यह कथन भी सत्य है । कारण कि जो निश्चय सम्यक्त्व है उसे तो प्रत्येक रहस्यकी पर्यायसहित केवली ही जान सकते हैं; अथवा जहाँ प्रत्येक प्रयोजनभूत पदार्थके हेतु अहेतुको सम्पूर्णरूपसे केवलीके सिवाय अन्य कोई दूसरा नहीं जान सकता, वहाँ निश्चय सम्यक्त्वको केवलीगम्य कहा है । तथा उस प्रयोजनभूत पदार्थके सामान्य अथवा स्थूलरूपसे हेतु अहेतुका समझ सकना भी संभव है, और इस कारण बनारसीदास वगैरहने अपनेको सम्यक्त्व होना कहा है। ५९. समयसारमें बनारसीदासकी बनाई हुई कवितामें कहा है कि " हमारे हृदयमें बोधबीज उत्पन्न हो गया है," अर्थात् उन्होंने कहा है कि हमें सम्यक्त्व है । ६०. सम्यक्त्व प्राप्त होनेके पश्चात् अधिकसे अधिक पंदरह भवके भीतर मुक्ति हो जाती है, और यदि जीव वहाँसे च्युत हो जाता है तो अर्धपुद्गल-परावर्तनमें मुक्ति होती है । यदि इस कालको अर्धपुद्गल-परावर्तन गिना जाय तो भी वह सादिसांतके भंगमें आ जाता है-यह बात शंकारहित है। ६१. सम्यक्त्वके लक्षणः १. कषायकी मंदता, अथवा उसके रसकी मंदता । २. मोक्षमार्गकी ओर वृत्ति । ३. संसारका बंधनरूप लगना या उसका खारा अथवा जहररूप मालूम होना। ४. सब प्राणियोंके ऊपर दयाभाव; उसमें विशेष करके अपनी आत्माके ऊपर दयाभाव । ५. सतूदेव सवधर्म और सद्गुरुके ऊपर आस्था ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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