SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 772
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ७२८,७२९,७३० उससे निस्सन्देह श्रवण किया हुआ श्रवणका लाभ व्यर्थ ही चला जायगा । यह दृष्टि यदि श्रोताको हो जाय तो वह अधिक हितकारी हो सकती है। ७२८ बम्बई, श्रावण वदी १२, १९५३ १. सर्वोत्कृष्ट भूमिकामें स्थिति होनेतक, श्रुतज्ञानका अवलंबन लेकर सत्पुरुष भी स्वदशामें स्थिर रह सकते हैं, ऐसा जो जिनभगवान्का अभिमत है, वह प्रत्यक्ष सत्य दिखाई देता है। २. सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यंत श्रुतज्ञान (ज्ञानी-पुरुषके वचन) का अवलंबन जब जब मंद पड़ता है, तब तब सत्पुरुष भी कुछ कुछ अस्थिर हो जाते हैं, तो फिर सामान्य मुमुक्षु जीव अथवा जिन्हें विपरीत समागम-विपरीत श्रुत आदि अवलंबन—रहते आये हैं, उन्हें तो बारम्बार विशेष अति विशेष अस्थिरता होना संभव है। ऐसा होनेपर भी जो मुमुक्षु, सत्समागम सदाचार और सत्शास्त्रके विचाररूप अवलंबनमें दृढ़ निवास करते हैं, उन्हें सर्वोत्कृष्ट भूमिकापर्यंत पहुँच जाना कठिन नहीं है-कठिन होनेपर भी कठिन नहीं है। ७२९ बम्बई, श्रावण वदी १२ बुध. १९५३ द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे जिन पुरुषोंको प्रतिबंध नहीं, उन सत्पुरुषोंको नमस्कार है ! सत्समागम सत्शास्त्र और सदाचारमें दृढ़ निवास होना यह आत्मदशा होनेका प्रबल अवलंबन है । यद्यपि सत्समागमका योग मिलना दुर्लभ है, तो भी मुमुक्षुओंको उस योगकी तीन जिज्ञासा रखनी चाहिये, और उसकी प्राप्ति करना चाहिये । तथा उस योगके अभावमें तो जीवको अवश्य ही सत्शास्त्ररूप विचारके अवलंबनसे सदाचारकी जागृति रखनी योग्य है। ७३० बम्बई, भाद्रपद सुदी ६ गुरु. १९५३ परम कृपाल पूज्य श्रीपिताजी! आजतक मैंने आपकी कुछ भी अविनय अभाक्ति अथवा अपराध किये हों, तो मैं दोनों हाथ जोड़कर मस्तक नमाकर शुद्ध अन्तःकरणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपा करके आप क्षमा प्रदान करें । अपनी मातेश्वरीसे भी मैं इसी तरह क्षमा माँगता हूँ । इसी प्रकार अन्य दूसरे साथियोंके प्रति भी मैंने यदि किसी भी प्रकारका अपराध अथवा अविनय-जाने या बिना जाने-किये हों, तो उनकी भी शुद्ध अन्तःकरणसे क्षमा माँगता हूँ। कृपा करके सब क्षमा करनाजी ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy