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________________ पत्र७३१,७३२,७३३,७३४] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ७३१ बम्बई, भाद्रपद सुदी ९ रवि. १९५३ १. बाह्यक्रिया और गुणस्थान आदिमें रहनेवाली क्रियाके स्वरूपकी चर्चा करना, हालमें प्रायः अपने और परके लिये उपकारी नहीं होगा। २. इतना ही कर्तव्य है कि तुच्छ मतमतांतरपर दृष्टि न डालते हुए, असवृत्तिका निरोध करनेके लिये, जीवको सत्शास्त्रके परिचय और विचारमें ही स्थिति करनी चाहिये । ७३२ बम्बई, भाद्रपद वदी ८ रवि. १९५३ जीवको परमार्थके प्राप्त करनेमें अपार अंतराय हैं; उसम भी इस कालमें तो अंतरायोंका अवर्णनीय बल रहता है । शुभेच्छासे लगाकर कैवल्यपर्यंत भूमिकाके पहुँचनेम जगह जगह वे अंतराय देखनेमें आते हैं, और वे अंतराय जीवको बारम्बार परमार्थसे च्युत कर देते हैं । जीवको महान् पुण्यके उदयसे यदि सत्समागमका अपूर्व लाभ रहा करे, तो वह निर्विघ्नतया कैवल्यपर्यंत भूमिकाको पहुँच जाता है । सत्समागमके वियोगमें जीवको आत्मबलको विशेष जाग्रत रखकर सत्शास्त्र और शुभेच्छासंपन्न पुरुषोंके समागममें ही रहना उचित है । ७३३ वम्बई, भाद्रपद वदी १५ रवि. १९५३ १. शरीर आदि बलके घटनेसे सब मनुष्योंसे सर्वथा दिगम्बरवृत्तिसे रहते हुए चारित्रका निर्वाह नहीं हो सकता; इसलिये वर्तमानकाल जैसे कालमें चारित्रका निर्वाह करनेके लिये, ज्ञानीद्वारा उपदेश किया हुआ मर्यादापूर्वक श्वेताम्बरवृत्तिसे जो आचरण है, उसका निषेध करना उचित नहीं। तथा इसी तरह वस्त्रका आग्रह रखकर दिगम्बरवृत्तिका एकांत निषेध करके वस्त्र-मूर्छा आदि कारणोंसे चारित्रमें शिथिलता करना भी उचित नहीं है। दिगम्बरत्व और श्वेताम्बरत्व, देश काल और अधिकारीके संबंधसे ही उपकारके कारण हैं। अर्थात् जहाँ ज्ञानीने जिस प्रकार उपदेश किया है, उस तरह प्रवृत्ति करनेसे आत्मार्थ ही होता है। २. मोक्षमार्गप्रकाशमें, श्वेताम्बर सम्प्रदायद्वारा मान्य वर्तमान जिनागमका जो निषेध किया है, वह निषेध योग्य नहीं । यद्यपि वर्तमान आगमोंमें अमुक स्थल अधिक संदेहास्पद हैं, परन्तु सत्पुरुषकी दृष्टिसे देखनेपर उसका निराकरण हो जाता है, इसलिये उपशमदृष्टि से उन आगमोंके अवलोकन करनेमें संशय करना उचित नहीं है। ७३४ बम्बई, आसोज सुदी ८ रवि. १९५३ (१) (१) सत्पुरुषोंके अगाध गंभीर संयमको नमस्कार हो।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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