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________________ पत्र ७२४,७२५,७२६,७२७] विविध पत्र आदि संग्रह-३०याँ वर्ष ७२४ बम्बई, श्रावण सुदी १५ गुरु. १९५३ (१) मोक्षमार्गप्रकाश ग्रंथका मुमुक्षु जीवको विचार करना योग्य है। उसका अवलोकन करते हुए यदि किसी विचारमें कुछ मतांतर जैसा मालूम हो तो व्याकुल न होकर उस स्थलको अधिक मनन करना चाहिये, अथवा उस स्थलको सत्समागममें समझना चाहिये। (२) परमोत्कृष्ट संयममें स्थितिकी बात तो दूर रही, परन्तु उसके स्वरूपका विचार होना भी कठिन है। ७२५ बम्बई, श्रावण सुदी १५ गुरु. १९५३ 'क्या सम्यग्दृष्टि अभक्ष्य आहार कर सकता है ? इत्यादि जो प्रश्न लिखे हैं उन प्रश्नोंके हेतुको विचारनेसे कहना योग्य होगा कि प्रथम प्रश्नमें किसी दृष्टांतको लेकर जीवको शुद्ध परिणामकी हानि करनेके ही समान है । मतिकी अस्थिरतासे जीव परिणामका विचार नहीं कर सकता। यद्यपि किसी जगह किसी प्रथमें श्रेणिक आदिके संबंधमें ऐसी बात कही है, परन्तु वह किसीके द्वारा आचरण करनेके लिये नहीं कही; तथा वह बात उसी तरह यथार्थ है, यह बात भी नहीं है। सम्यग्दृष्टि पुरुषको अल्पमात्र भी व्रत नहीं होता, तो भी सम्यग्दर्शन होनेके पश्चात् उसका यदि जीव वमन न करे तो वह अधिकसे अधिक पन्दरह भवमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है, ऐसा सम्यग्दर्शनका बल है-इस हेतुसे कही हुई बातको अन्यथारूपमें न ले जानी चाहिये । सत्पुरुषकी वाणी, विषय और कषायके अनुमोदनसे अथवा राग-द्वेषके पोषणसे रहित होती है-यह निश्चय रखना चाहिये और चाहे कैसा भी प्रसंग हो उसका उसी दृष्टिसे अर्थ करना उचित है। __७२६ बम्बई, श्रावण वदी ८ शुक्र. १९५३ (१) मोहमुद्गर और मणिरत्नमाला इन दो पुस्तकोंका हालमें बाँचनेका परिचय रखना । इन दोनों पुस्तकोंमें मोहके स्वरूपके तथा आत्म-साधनके बहुतसे उत्तम भेद बताये हैं। (२) पारमार्थिक करुणाबुद्धिसे निष्पक्षभावसे कल्याणके साधनके उपदेष्टा पुरुषका समागम, उपासना और उसकी आज्ञाका आराधन करना चाहिये। तथा उस समागमके वियोगमें सत्शास्त्रका बुद्धि-अनुसार परिचय रखकर सदाचारसे प्रवृत्ति करना ही योग्य है। ७२७ बम्बई, श्रावण वदी १० रवि. १९५३ मोक्षमार्गप्रकाश श्रवण करनेकी जिन जिज्ञासुओंको अभिलाषा है, उनको उसे श्रवण करानाअधिक स्पष्टीकरणपूर्वक और धीरजसे श्रवण कराना । श्रोताको यदि किसी स्थलपर विशेष संशय हो तो उसका समाधान करना उचित है। तथा किसी स्थानपर यदि समाधान होना असंभव जैसा मालूम हो तो उसे किसी महात्माके संयोगसे समझनेके लिये कहकर श्रवणको रोकना नहीं चाहिये। तथा उस संशयको किसी महात्माके सिवाय अन्य किसी स्थानमें पूछनेसे वह विशेष भ्रमका ही कारण होगा, और
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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