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________________ ६८२ श्रीमद् राजवन्द्र [पत्र ७२०,७२१,७२२,७२५ ७२० बम्बई, आषाढ वदी १ गुरु. १९५३ (१) * सकळ संसारी इद्रियरामी, मुनि गुण आतमरामी रे, - मुख्यणे जे आतमरामी, ते कहिये निकामी रे। (२)हे मुनियो! तुम्हें आर्य सोभागकी अंतरदशाकी और देह-मुक्त समयकी दशाकी, बारम्बार अनुप्रेक्षा करना चाहिये। (३) हे मुनियो ! तुम्हें द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे-असंगभावसे-विचरण करनेके सतत उपयोगको सिद्ध करना चाहिये ! जिसने जगत्के सुखकी स्पृहाको छोड़कर ज्ञानीके मार्गका आश्रय ग्रहण किया है, वह अवश्य उस असंग उपयोगको पाता है । जिस श्रुतसे असंगता उल्लसित हो उस श्रुतका परिचय करना योग्य है। ७२१ बम्बई, आषाढ वदी ११ रवि. १९५३ परम संयमी पुरुषोंको नमस्कार हो. असारभूत व्यवहारको सारभूत प्रयोजनकी तरह करनेका उदय मौजूद रहनेपर भी, जो पुरुष उस उदयसे क्षोभ न पाकर सहजभाव-स्वधर्ममें निश्चलभावसे रहे हैं, उन पुरुषोंके भीष्म-व्रतका हम बारम्बार स्मरण करते हैं। ७२२ बम्बई, श्रावण सुदी ३ रवि. १९५३ (१) परम उत्कृष्ट संयम जिनके लक्षमें निरन्तर रहा करता है, उन सत्पुरुषोंके समागमका निरंतर ध्यान है। (२) प्रतिष्ठित (निग्रंथ )व्यवहारकी श्री......."की जिज्ञासासे भी अनंतगुण विशिष्ट जिज्ञासा रहती है। उदयके बलवान और वेदन किये बिना अटल होनेसे, अंतरंग खेदका समतासहित वेदन करते हैं । दीर्घकालको अत्यन्त अल्पभावमें लानेके ध्यानमें वर्तन करते हैं । (३) यथार्थ उपकारी पुरुषकी प्रत्यक्षता में एकत्वभावना आत्मशुद्धिकी उत्कृष्टता करती है। ७२३ बम्बई, श्रावण सुदी १५ गुरु. १९५३ (१) जिसकी दीर्घकालकी स्थिति है, उसे अल्पकालकी स्थितिमें लाकर जिन्होंने कौका क्षय किया है, उन महात्माओंको नमस्कार है ! (२ सदाचरण सद्ग्रंथ और सत्समागममें प्रमाद नहीं करना चाहिये । - *अर्यके लिये देलो अंक ६८४. -अनुवादक...
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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