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________________ ६६८ श्रीमद् राजचन्द्र - [७०३ . संवत् उन्नीससौ इकतालीसमें अपूर्व क्रम प्राप्त हुआ; और उन्नीससौ बियालिसमें अद्भुत वैराग्यधारा प्रकाशित हुई। अहा ! इस दिनको धन्य है ॥२॥ संवत् उन्नीससौ सैंतालीसमें शुद्ध समकितका प्रकाश हुआ; श्रुतका अनुभव, बढ़ती हुई दशा और निजस्वरूपका भास हुआ। अहा ! इस दिनको धन्य है ॥ ३ ॥ इस समय एक भयानक उदय आया। उस उदयसे परिग्रह-कार्यके प्रपंचमें पड़ना पड़ा । ज्यों ज्यों उसे धक्का मारकर भगाते थे, त्यों त्यों वह उल्टा बढ़ता ही जाता था और रंचमात्र भी कम न होता था। अहा ! इस दिनको धन्य है ॥ ४॥ इस तरह यह दशा क्रमसे बढ़ती चली गई। इस समय वह कुछ क्षीण मालूम होती है । मनमें ऐसा भासित होता है कि वह क्रमसे क्रमसे दूर हो जायगी । अहा ! इस दिनको धन्य है ॥५॥ जो कारणपूर्वक मनमें सत्यधर्मके उद्धार करनेका भाव है, वह इस देहसे अवश्य होगा ऐसा निश्चय हो गया है । अहा ! इस दिनको धन्य है ॥ ६॥ अहा! यह कैसी अपूर्व वृत्ति है, इससे अप्रमत्तयोग होगा, और लगभग केवलभूमिकाको स्पर्श करके देहका वियोग होगा । अहा ! इस दिनको धन्य है ॥ ७॥ कर्मका जो भोग बाकी रहा है, उसे अवश्य ही भोगना है । इस कारण एक ही देह धारण करके निजरूप निजदेशको जाऊँगा । अहा ! इस दिनको धन्य है ॥ ८॥ ७०३ ववाणीआ, चैत्र सुदी ३ रवि. १९५३ __रहस्यदृष्टि अथवा समिति-विचार परमभक्तिसे स्तुति करनेवालेके प्रति भी जिसे राग नहीं, और परमद्वेषसे परिषह-उपसर्ग करनेवालेके प्रति जिसे द्वेष नहीं, उस पुरुषरूप भगवान्को बारम्बार नमस्कार हो। द्वेषरहित वृत्तिसे प्रवृत्ति करना योग्य है, धीरज रखना चाहिये । ओगणीसे ने एकतालीसे, आव्यो अपूर्व अनुसार रे, ओगणीसें ने बेतालीसे, अद्भुत वैराग्य धार रे । धन्य० ॥२॥ ओगणीसे ने सुडतालीसे, समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे, श्रुत अनुभव वधती दशा, निजस्वरूप अवभास्यु रे । धन्य०॥३॥ त्या आल्यो रे उदय कारमो, परिग्रह कार्य प्रपंच रे, जेम जेम ते हडसेलीए, तेम वधे न घटे एक रंच रे । धन्य० ॥ ४॥ वषतुं एम ज चालियु, हवे दीसे क्षीण काई रे, क्रमे करीने रे ते जो, एम भासे मनमाहि रे । धन्य० ॥ ५॥ यथाहेतु जे चित्तनो, सत्यधर्मनो उद्धार रे, यशे अवश्य आ देहयी, एम थयो निरधार रे । धन्य० ॥६॥ आवी अपूर्व वृत्ति अहो, यशे अप्रमत्त योग रे, केवळ लगभग भूमिका, पीने देह वियोगरे । धन्य० ॥ ७॥ अवश्य कर्मनो भोग छ, बाकी रमो अवशेष रे, वेषी देह एक ज धारिने, जोश खरूप स्वदेश रे। धन्य० ॥ ८॥ ..
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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