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________________ ७०३ रहस्यदृष्टि ] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष । (१) शंकाः-मुनि.......'को आचारांग पढ़ते हुए शंका हुई है कि साधुको दीर्घशंका आदि कारणोंमें भी बहुत सख्त मार्गका प्ररूपण देखने में आता है, तो ऐसी ऐसी अल्प क्रियाओंमें भी इतनी अधिक सख्ती रखनेका क्या कारण होगा! समाधानः-सतत अन्तर्मुख उपयोगमें स्थिति रखना ही निग्रंथका परम धर्म है। एक समय भी उस उपयोगको बहिर्मुख न करना चाहिये, यही निर्ग्रथका मुख्य मार्ग है। परन्तु उस संयमके लिये जो देह आदि साधन बताये हैं, उनके निर्वाहके लिये सहज ही प्रवृत्ति भी होना उचित है । तथा उस तरहकी कुछ भी प्रवृत्ति करते हुए उपयोग बहिर्मुख होनेका निमित्त हो जाता है। इस कारण उस प्रवृत्तिके इस तरह ग्रहण करनेकी आज्ञा दी है कि जिससे वह प्रवृत्ति अन्तर्मुख उपयोगके प्रति रहा करे । यद्यपि केवल और सहज अन्तर्मुख उपयोग तो मुख्यतया केवलभूमिका नामके तेरहवें गुणस्थानमें ही होता है; किन्तु अनिर्मल विचारधाराकी प्रबलतासहित अंतर्मुख उपयोग तो सातवें गुणस्थानमें भी होता है। वहाँ वह उपयोग प्रमादसे स्खलित हो जाता है, और यदि वह उपयोग वहाँ कुछ विशेष अंशमें स्खलित हो जाय तो उपयोगके विशेष बहिर्मुख हो जानेसे उसकी असंयम-भावसे प्रवृत्ति होती है। उसे न होने देनेके लिये, और देह आदि साधनोंके निर्वाहकी प्रवृत्ति भी ऐसी है जो छोड़ी नहीं जा सकती इस कारण, जिससे वह प्रवृत्ति अन्तर्मुख उपयोगसे हो सके, ऐसी अद्भुत संकलनासे उस प्रवृत्तिका उपदेश किया है। इसे पाँच समितिके नामसे कहा जाता है। जिस तरह आज्ञा की है उस तरह आज्ञाके उपयोगपूर्वक चलना पड़े तो चलना; जिस तरह आज्ञा की है उस तरह आज्ञापूर्वक बोलना पड़े तो बोलना; जिस तरह आज्ञा की है उस तरह आज्ञाके उपयोगपूर्वक आहार आदि ग्रहण करना; जिस तरह आज्ञा की है उस तरह आज्ञाके उपयोगपूर्वक वस आदिको लेना रखना; जिस तरह आज्ञा की है उस तरह आज्ञाके उपयोगपूर्वक दीर्घशंका आदि त्याग करने योग्य शरीरके मलका त्याग करना-इस प्रकार प्रवृत्तिरूप पाँच समितियाँ कहीं हैं । संयममें प्रवृत्ति करनेके जो जो दूसरे प्रकारोंका उपदेश दिया है, उन सबका इन पाँच समितियोंमें समावेश हो जाता है । अर्थात् जो कुछ निग्रंथको प्रवृत्ति करनेकी आज्ञा की है वह, जिस प्रवृत्तिका त्याग करना अशक्य है, उसी प्रवृत्तिको करनेकी आज्ञा की है; और वह इस प्रकारसे ही की है कि जिस तरह मुख्य हेतु जो अंतर्मुख उपयोग है उसमें अस्खलित भाव रहे । यदि इसी तरह प्रवृत्ति की जाय तो उपयोग सतत जाग्रत रह सकता है, और जिस जिस समय जीवकी जितनी जितनी ज्ञान-शक्ति और वीर्य-शक्ति है वह सब अप्रमत्त रह सकती है। दीर्घशंका आदि क्रियाओंको करते हुए भी जिससे अप्रमत्त संयमदृष्टि विस्मृत न हो जाय, इसलिये उन सख्त क्रियाओंका उपदेश किया है, परन्तु वे सत्पुरुषकी दृष्टि बिना समझमें नहीं आती। यह रहस्पदृष्टि संक्षेपमें लिखी है, उसपर अधिकाधिक विचार करना चाहिये । किसी भी क्रियामें प्रवृत्ति करते हुए इस दृष्टिको स्मरणमें रखनेका लक्ष रखना योग्य है। जो जो ज्ञानीकी आज्ञारूप क्रियायें हैं, उन सब क्रियाओंमें यदि तथारूप भावसे प्रवृत्ति की जाय तो वह अप्रमत्त उपयोग होनेका साधन है । इस आशययुक्त इस पत्रका ज्यों ज्यों विशेष विचार करोगे, त्यो त्यों अपूर्व अर्थका उपदेश मिलेगा।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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