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________________ ६६६ भीमद् राजचन्द्र [७.. पंचास्तिकाय जो, दर्शन-ज्ञानसे भरपूर और अन्य द्रव्यके संसर्गसे रहित ऐसे ध्यानको, निर्जराके हेतुसे करता है, वह महात्मा स्वभावसहित है ॥ ३७॥ - जो संवरयुक्त होकर सर्व कर्मोकी निर्जरा करता हुआ वेदनीय और आयुकर्मसे रहित होता है, वह महात्मा उसी भवसे मोक्ष जाता है ॥ ३८॥ जीवका स्वभाव अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन है। उसके अभिन्नस्वरूप आचरण करनेको ( शुद्ध निश्चयमय स्थिर स्वभावको ) सर्वज्ञ वीतरागदेवने निर्मल चारित्र कहा है ॥ ३९॥ वस्तुतः आत्माका स्वभाव निर्मल ही है; परन्तु गुण और पर्याययुक्त होकर उसने पर-समय परिणामसे अनादिसे परिणमन किया है, इसलिये वह अनिर्मल है। यदि वह आत्मा स्व-समयको प्राप्त कर ले तो कर्म-बंधसे रहित हो जाय ॥ ४० ॥ जो पर-द्रव्यमें शुभ अथवा अशुभ राग करता है, वह जीव स्व-चारित्रसे भ्रष्ट होता है, और वह पर-चारित्रका आचरण करता है, ऐसा समझना चाहिये ॥४१॥ जिस भावसे आत्माको पुण्य और पाप-आश्रवकी प्राप्ति हो, उसमें प्रवृत्ति करनेवाली आत्मा पर-चारित्रमें आचरण करती है, ऐसा वीतराग सर्वज्ञने कहा है ॥ ४२ ॥ जो सर्व संगसे मुक्त होकर, अभिन्नरूपसे आत्म-स्वभावमें स्थित है, निर्मल ज्ञाता द्रष्टा है, वह जीव स्व-चारित्रका आचरण करनेवाला है ॥ ४३ ॥ पर-द्रव्यमें भावसे रहित, निर्विकल्प ज्ञान-दर्शनमय परिणामयुक्त जो आत्मा है, वह स्व-चारित्र आचरण है ॥४४॥ जिसे सम्यक्त्व, आत्मज्ञान, राग-द्वेषसे रहित चारित्र और सम्यक्बुद्धि प्राप्त हो गई है, ऐसे भव्य जीवको मोक्षमार्ग होता है ॥ ४५ ॥ तत्त्वार्थमें प्रतीति होना सम्यक्त्व है । तत्त्वार्थका ज्ञान होना ज्ञान है; और विषयके मोहयुक्त मार्गके प्रति शांतभाव होना चारित्र है ॥ ४६॥ धर्मास्तिकाय आदिके स्वरूपकी प्रतीति होना सम्यक्त्व है, बारह अंग और चौदह पूर्वका जानना ज्ञान है, तथा तपश्चर्या आदिमें प्रवृत्ति करना व्यवहार मोक्षमार्ग है ॥ १७ ॥ जहाँ सम्यग्दर्शन आदिसे एकाप्रभावको प्राप्त आत्मा, एक आत्माके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं करती, केवल अभिन्न आत्मामय ही रहती है, वहाँ सर्वज्ञ वीतरागने निश्चय मोक्षमार्ग कहा है ॥४८॥ जो आत्मा आत्म-स्वभावमय ज्ञान-दर्शनका अभेदरूपसे आचरण करती है, वह स्वयं ही निश्चय ज्ञान दर्शन और चारित्र है॥ १९॥ जो इस सबको जानेगा और देखेगा, वह अन्याबाध सुखका अनुभव करेगा। इन भावोंकी प्रतीति भव्यको ही होती है, अभव्यको नहीं होती ॥५०॥ दर्शन ज्ञान और चारित्र यह मोक्षमार्ग है; उसके सेवन करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, और (अमक कारणसे) उससे बंध भी होता है, ऐसा मुनियोंने कहा है ॥ ५१ ॥ अहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, गण और ज्ञानमें भक्तिसंपन्न जीव बहुत पुण्यका उपार्जन करता है, परन्तु वह सब कोका क्षय नहीं करता ॥५२॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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