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________________ ७०० पंचास्तिकाय] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ६६५ अरस, अरूप, अगंध, अशब्द, अनिर्दिष्ट संस्थान, और वचनके अगोचर जिसका चैतन्य गुण है, वह जीव है ॥२१॥ जो निश्चयसे संसारमें स्थित जीव है, उसके दो प्रकारके परिणाम होते हैं । परिणामसे कर्म उत्पन्न होता है, और उससे अच्छी और बुरी गति होती है ॥ २२॥ गतिकी प्राप्तिसे देह उत्पन्न होती है, देहसे इन्द्रियाँ और इन्द्रियोंसे विषय ग्रहण होता है, और उससे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं ॥ २३ ॥ संसार-चक्रवालमें उन भावोंसे परिभ्रमण करते हुए जीवोंमें किसी जीवका संसार अनादि-सांत है, और किसीका अनादि-अनंत है-ऐसा भगवान् सर्वज्ञने कहा है ॥ २४ ॥ जिसके भावोंमें अज्ञान, राग, द्वेष और चित्तकी प्रसन्नता रहती है, उसके शुभ-अशुभ परिणाम होते हैं ॥ २५॥ जीवको शुभ परिणामसे पुण्य होता है, और अशुभ परिणामसे पाप होता है । उससे शुभाशुभ पुद्गलके ग्रहणरूप कर्मावस्था प्राप्त होती है ॥ २६ ॥ तृषातुरको, क्षुधातुरको, रोगीको अथवा अन्य किसी दुःखी चित्तवाले जीवको, उसके दुःख दूर करनेके उपायकी क्रिया करनेको अनुकंपा कहते हैं ॥ २७ ॥ जीवको क्रोध, मान, माया, और लोभकी मिठास क्षुभित कर देती है, और वह पाप-भावकी उत्पत्ति करती है ॥२८॥ बहुत प्रमादवाली क्रिया, चित्तकी मलिनता, इन्द्रियके विषयोंमें लुब्धता, दूसरे जीवोंको दुःख देना, उनकी निन्दा करनी इत्यादि आचरणोंसे जीव पापाश्रव करता है ॥ २९॥ चार संज्ञायें, कृष्ण आदि तीन लेश्यायें, इन्द्रियाधीनत्व, आर्त और रौद्र ध्यान, और दुष्टभाववाली क्रियाओंमें मोह होना-यह भावपापाश्रव है ॥ ३०॥ जीवको, इन्द्रियाँ कषाय और संज्ञाका जय करनेवाला कल्याणकारी मार्ग जिस कालमें रहता है, उस कालमें जीवको पापाश्रवरूप छिद्रका निरोध हो जाता है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३१ ॥ . जिसे किसी भी द्रव्यके प्रति राग द्वेष और अज्ञान नहीं रहता, ऐसे सुख-दुःखमें समदृष्टिके स्वामी निर्ग्रन्थ महात्माको शुभ-अशुभ आश्रव नहीं होता ॥ ३२॥ योगका निरोध करके जो तपश्चर्या करता है, वह निश्चयसे बहुत प्रकारके कर्मोंकी निर्जरा करता है॥ ३३॥ - जिस संयमीको जिस समय योगमें पुण्य-पापकी प्रवृत्ति नहीं होती, उस समय उसे शुभ और अशुभ कर्मके कर्तृत्वका भी संवर-निरोध-हो जाता है ॥ ३४ ॥ जो आत्मार्थका साधन करनेवाला, संवरयुक्त होकर, आत्मस्वरूपको जानकर तप ध्यान करता है, वह महात्मा साधु कर्म-रजको झाड़ डालता है ॥ ३५॥ जिसे राग, द्वेष, मोह और योगका व्यापार नहीं रहता, उसे शुभाशुभ कर्मको जलाकर भस्म कर देनेवाली ज्यानरूपी अमि प्रगट होती है॥३६॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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