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________________ ६४८ श्रीमद् राजवन्द्र [६९४ मोक्षसिद्धान्त स्थूल निरूपण रहनेके कारण, वर्तमान मनुष्योंको निम्रन्थभगवान्के उस श्रुतका इस क्षेत्रमें पूर्ण लाभ नहीं मिलता। . अनेक मतमतांतर आदिके उत्पन्न होनेका हेतु भी यही है, और इसी कारण निर्मल आत्मत्वके अभ्यासी महात्माओंकी भी अल्पता हो गई है। श्रुतके अल्प रह जानेपर भी, अनेक मतमातांतरोंके मौजूद रहनेपर भी, समाधानके बहुतसे साधनोंके परोक्ष होनेपर भी, महात्मा पुरुषोंके कचित् कचित् मौजूद रहनेपर भी, हे आर्यजनो! सम्यग्दर्शन, श्रुतका रहस्यभूत परमपदका पंथ, आत्मानुभवका हेतु सम्यक्चारित्र और विशुद्ध आत्मध्यान आज भी विद्यमान है-यह परम हर्षका कारण है। वर्तमानकालका नाम दुःषम काल है । इस कारण अनेक अंतरायोंके होनेसे, प्रतिकूलता होनेसे और साधनोंकी दुर्लभता होनेसे, मोक्षमार्गकी प्राप्ति दुःखसे होती है; परन्तु वर्तमानमें कुछ मोक्षका मार्ग ही विच्छिन्न हो गया है, यह विचार करना उचित नहीं । पंचमकालमें होनेवाले महर्षियोंने भी ऐसा ही कहा है । तदनुसार यहाँ कहता हूँ। सूत्र और दूसरे अनेक प्राचीन आचार्योका अनुकरण करके रचे हुए अनेक शास्त्र विद्यमान हैं। सुबोधित पुरुषोंने तो उनकी हितकारी बुद्धिसे ही रचना की है। इसलिये यदि किन्हीं मतवादी, हठवादी, और शिथिलताके पोषक पुरुषोंके द्वारा रची हुई कोई पुस्तकें, उन सूत्रों अथवा जिनाचारसे न मिलती हों, और प्रयोजनकी मर्यादासे बाह्य हों, तो उन पुस्तकोंके उदाहरण देकर भवभीर महात्मा लोग प्राचीन सुबोधत आचार्योंके वचनोंके उत्यापन करनेका प्रयत्न नहीं करते। परन्तु यह समझकर कि उससे उपकार ही होता है, उनका बहुत मान करते हुए वे उनका यथायोग्य सदुपयोग करते हैं। जिनदर्शनमें दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मुख्य भेद हैं । मतदृष्टिसे तो उनमें महान् अंतर देखनेमें आता है । परन्तु जिनदर्शनमें तत्त्वदृष्टिसे वैसा विशेष भेद मुख्यरूपसे परोक्ष ही है। उनमें कुछ ऐसा भेद नहीं है कि जो प्रत्यक्ष कार्यकारी हो सकता हो । इसलिये दोनों सम्प्रदायोंमें उत्पन्न होनेवाले गुणवान पुरुष सम्यग्दृष्टिसे ही देखते हैं। और जिस तरह तत्त्व-प्रतीतिका अंतराय कम हो वैसा आचरण करते हैं। जैनाभाससे निकले हुए दूसरे अनेक मतमतांतर भी हैं। उनके स्वरूपका निरूपण करते हुए भी वृत्ति संकुचित होती है । जिनमें मूल प्रयोजनका भी भान नहीं; . इतना ही नहीं परन्तु जो मूल प्रयोजनसे विरुद्ध पद्धतिका ही अवलंबन लेते हैं। उन्हें मुनित्वका स्वप्न भी कहाँसे हो सकता है ! क्योंकि वे तो मूल प्रयोजनको भूलकर केशमें पड़े हुए हैं, और अपनी पूज्यता आदिके लिये जीवोंको परमार्थ-मार्गमें अंतराय करते हैं। . वे मुनिका लिंग भी धारण नहीं करते, क्योंकि स्वकपोल-रचनासे ही उनकी सर्व प्रवृत्ति रहती हैं । जिनागम अथवा आचार्यकी परम्परा तो केवल नाममात्र ही उनके पास है। वास्तवमें तो वे उससे पराङ्मुख ही हैं। : कोई कमंडलु जैसी और कोई डोरे जैसी अल्प वस्तुके ग्रहण-स्यागके आग्रहसे भिन्न भिन्न मार्ग
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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