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________________ ६९४ जैनमार्ग-विवेक] विविध पत्र आदि संग्रह-३०याँ वर्ष . (३) जैनमार्ग-विवेक अपने समाधानके लिये यथाशक्ति जो जैनमार्ग समझा है, उसका यहाँ कुछ संक्षेपसे विचार करता हूँ: वह जैनमार्ग, जिस पदार्थका अस्तित्व है उसका अस्तित्व और जिसका अस्तित्व नहीं है उसका नास्तित्व स्वीकार करता है। __ वह कहता है कि जिनका अस्तित्व है ऐसे पदार्थ दो प्रकारके हैं:-जीव और अजीव । ये पदार्थ स्पष्ट भिन्न भिन्न हैं। कोई भी किसीके स्वभावका त्याग नहीं कर सकता । अजीव रूपी और अरूपीके भेदसे दो प्रकारका है। ___ जीव अनंत हैं । प्रत्येक जीव तीनों कालमें जुदा जुदा है । जीव ज्ञान दर्शन आदि लक्षणोंसे पहिचाना जाता है । प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशकी अवगाहनासे रहता है; संकोच-विकासका भाजन है; अनादिसे कर्मका ग्राहक है । यथार्थ स्वरूपको जाननेसे, उसे प्रतीतिमें लानेसे, स्थिर परिणाम होनेपर उस कर्मकी निवृत्ति होती है । स्वरूपसे जीव वर्ण, गंध, रस और स्पर्शसे रहित है; अजर, अमर और शाश्वत वस्तु है। -(अपूर्ण) (४) मोक्षसिद्धान्त भगवान्को परम भक्तिसे नमस्कार करके अनंत अव्याबाध सुखमय परमपदकी प्राप्तिके लिये, भगवान् सर्वज्ञद्वारा निरूपण किये हुए मोक्ष-सिद्धांतको कहता हूँ: द्रव्यानुयोग, कारणानुयोग, चरणानुयोग और धर्मकथानुयोगके महानिधि वीतराग-प्रवचनको नमस्कार करता हूँ। कर्मरूपी वैरीका पराजय करनेवाले अहंतभगवान्को; शुद्ध चैतन्यपदमें सिद्धालयमें विराजमान सिद्धभगवान्को; ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन मोक्षके पंचाचारोंका पालन करनेवाले, और दूसरे भव्य जीवोंको आचारमें लगानेवाले आचार्यभगवान्को; द्वादशांगके अभ्यासी और उस श्रुत, शब्द, अर्थ और रहस्यसे अन्य भव्य जीवोंको अध्ययन करानेवाले ऐसे उपाध्यायभगवानको; तथा मोक्षमार्गका आत्मजागृतिपूर्वक साधन करनेवाले ऐसे साधुभगवान्को, मैं परम भक्तिसे नमस्कार करता हूँ। श्रीऋषभदेवसे श्रीमहावीरपर्यंत भरतक्षेत्रके वर्तमान चौबीस तीर्थकरोंके परम उपकारका मैं बारम्बार स्मरण करता हूँ। वर्तमानकालके चरम तीर्थकरदेव श्रीमान् वर्धमानजिनकी शिक्षासे ही वर्तमानमें मोक्षमार्गका अस्तित्व मौजूद है । उनके इस उपकारको सुबोधित पुरुष बारम्बार आश्चर्यमय समझते हैं। कालके दोषसे अपार श्रुत-सागरका बहुतसा भाग विस्मृत हो गया है, और वर्तमानमें केवल बिन्दुमात्र अथवा अल्पमात्र ही बाकी बचा है । अनेक स्थलों के विस्मृत हो जानेसे, और अनेक स्थलोंमें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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