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________________ ६९४ द्रव्यप्रकाश विविध पत्र आदि संग्रह-३०याँ वर्ष ६४९ चलाता है, और तीर्थका भेद पैदा करता है, ऐसा महामोहसे मूढ़ जीव लिंगाभासपनेसे आज भी वीतरागदर्शनको घेरकर बैठा हुआ है-यही असंयतिपूजा नामका आश्चर्य मालूम होता है। महात्मा पुरुषोंकी अल्प भी प्रवृत्ति स्व और परको मोक्षमार्गके सन्मुख करनेवाली होती है। लिंगाभासी जीव अपने बलको मोक्षमार्गसे पराङ्मुख करनेमें प्रवर्तमान देखकर हर्षित होते हैं; और वह सब, कर्म-प्रकृतिमें बढ़ते हुए अनुभाग और स्थितिबंधका ही स्थानक है, ऐसा मैं मानता हूँ।-(अपूर्ण) (५) द्रव्यप्रकाश द्रव्य अर्थात् वस्तु-तत्त्व-पदार्थ । इसमें मुख्य तीन अधिकार हैं। प्रथम अधिकारमें जीव और अजीव द्रव्यके मुख्य भेद कहे हैं। दूसरे अधिकारमें जीव और अजीवका परस्पर संबंध और उससे जीवका क्या हिताहित होता है, उसे समझानेके लिये, उसकी विशेष पर्यायरूपसे पाप पुण्य आदि दूसरे सात तत्त्वोंका निरूपण किया है। वे सातों तत्व जीव और अजीव इन दो तत्वोंमें समाविष्ट हो जाते हैं। तीसरे अधिकारमें यथास्थित मोक्षमार्गका प्रदर्शन किया है, जिसको लेकर ही समस्त ज्ञानीपुरुषोंका उपदेश है। पदार्थके विवेचन और सिद्धांतपर जिनकी नींव रक्खी गई है, और उसके द्वारा जो मोक्षमार्गका प्रतिबोध करते हैं, ऐसे दर्शन छह हैं:--(१) बौद्ध, (२) न्याय, (३) सांख्य, (४) जैन, (५) मीमांसक और (६) वैशेषिक । यदि वैशेषिकदर्शनका न्यायदर्शनमें अंतर्भाव किया जाय तो नास्तिक-विचारका प्रदिपादन करनेवाला छठा चार्वाकदर्शन अलग गिना जाता है। प्रश्नः-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, उत्तरमीमांसा और पूर्वमीमांसा ये वेद-परिभाषामें छह दर्शन माने गये हैं, परन्तु यहाँ तो आपने इन दर्शनोंको जुदा पद्धतिसे ही गिनाया है । इसका क्या कारण है! ___ समाधानः-वेद-परिभाषामें बताये हुए दर्शन वेदको मानते हैं, इसलिये उन्हें उस दृष्टिसे गिना गया है; और उपरोक्त क्रम तो विचारकी परिपाटीके भेदसे बताया है । इस कारण यही क्रम योग्य है । द्रव्य और गुणका जो अनन्यत्व-अभेद-बताया गया है वह प्रदेशभेद-रहितपना ही है-क्षेत्रभेद-रहितपना नहीं । द्रव्यके नाशसे गुणका नाश होता है और गुणके नाशसे द्रव्यका नाश होता है, इस तरह दोनोंका ऐक्यभाव है । द्रव्य और गुणका जो भेद कहा है, वह केवल कथनकी अपेक्षा है, वास्तविक दृष्टिसे नहीं। यदि संस्थान और संख्याविशेषके भेदसे ज्ञान और ज्ञानीका सर्वथा भेद हो तो फिर दोनों अचेतन हो जॉय-यह सर्वज्ञ वीतरागका सिद्धांत है। आत्मा ज्ञानकी साथ समवाय संबंधसे ज्ञानी नहीं है । समवृत्तिको समवाय कहते हैं । वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-परमाणु, द्रव्यके गुण हैं।---------- ( अपूर्ण) यह अत्यंत सुप्रसिद्ध है कि प्राणीमात्रको दुःख प्रतिकूल और अप्रिय है, तथा सुख अनुकूल और प्रिय है। उस दुःखसे रहित होनेके लिये और मुखकी प्राप्तिके लिये प्राणीमात्रका प्रयत्न रहता है। ८२
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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