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________________ ६९२ आनन्दघन चौबीसी-विवेचन] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ३३५ ६९२श्री ववाणीआ, मोरबी, कार्तिकसे फाल्गुन १९५३ श्रीआनन्दघनजी चौबीसी-विवेचन ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाहुं रे कंत।। रीश्यो साहिब संग न परिहरे रे, भांगे सादि अनंत ॥ ऋषभ० ॥ . नाभिराजाके पुत्र श्रीऋषभदेवजी तीर्थकर मेरे परम प्रिय हैं। इस कारण मैं अन्य किसी भी स्वामीकी इच्छा नहीं करती। ये स्वामी ऐसे हैं कि जो प्रसन्न होनेपर फिर कभी भी संग नहीं छोड़ते । मेरा इनका संग हुआ है इसलिये तो उसकी आदि है, परन्तु वह संग अटल होनेसे अनंत है ॥१॥ . विशेषार्थः-जो स्वरूप-जिज्ञासु पुरुष हैं वे, जिन्होंने पूर्ण शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लिया है ऐसे भगवान्के स्वरूपमें अपनी वृत्तिको तन्मय करते हैं । इससे उनकी स्वरूपदशा जागृत होती जाती है, और वह सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्रको प्राप्त होती है । जैसा भगवान्का स्वरूप है वैसा ही शुद्धनयकी अपेक्षा आत्माका भी स्वरूप है । इस आत्मा और सिद्धभगवान्के स्वरूपमें केवल औपाधिक भेद है । यदि स्वाभाविक स्वरूपसे देखते हैं तो आत्मा सिद्धभगवान्के ही तुल्य है। दोनोंमें इतना ही भेद है कि सिद्धभगवान्का स्वरूप निरावरण है, और वर्तमानमें इस आत्माका स्वरूप आवरणसहित है। वस्तुतः इनमें कोई भी भेद नहीं । उस आवरणके क्षीण हो जानेसे आत्माका सिद्धस्वरूप प्रगट होता है। तथा जबतक वह सिद्धस्वरूप प्रगट नहीं हुआ तबतक जिन्होंने स्वाभाविक शुद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लिया है ऐसे सिद्धभगवानकी उपासना करनी ही योग्य है। इसी तरह अर्हत्भगवान्की भी उपासना करनी चाहिये क्योंकि वे भगवान् सयोगी-सिद्ध हैं । यद्यपि सयोगरूप प्रारब्धके कारण वे देहधारी हैं, परन्तु वे भगवान् स्वरूप-समवस्थित हैं । सिद्धभगवान्, और उनके ज्ञान, दर्शन, चारित्र अथवा वीर्यमें कुछ भी भेद नहीं है; अर्थात् अर्हत्भगवान्की उपासनासे भी यह आत्मा स्वरूपतन्मयताको प्राप्त कर सकती है। पूर्व महात्माओंने कहा है: जे जाणइ अरिहंते, दव्वगुणपज्जवेहि य । सो जाणइ निय अप्पा, मोहो खलु जाइ तस्स लयं । -जो अहंतभगवान्का स्वरूप, द्रव्य गुण और पर्यायसे जानता है, वह अपनी आत्माके स्वरूपको जानता है, और निश्चयसे उसका मोह नाश हो जाता है। उस भगवान्की उपासना जीवोंको किस अनुक्रमसे करनी चाहिये, उसे श्रीआनंदघनजी नौवें स्तवनमें कहनेवाले हैं, उसे उस प्रसंगपर विस्तारसे कहेंगे। भगवासिद्धके नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु इन कर्मोंका भी अभाव रहता है । वे भगवान् सर्वथा कासे रहित हैं। तथा भगवान् अर्हतको केवल आत्मस्वरूपको आवरण करनेवाले कर्मोका ही क्षय है। परन्तु उन्हें उपर कहे हुए चार कर्मोंका-वेदन करके क्षीण करनेपर्यंत--पूर्वबंध रहता है; इस कारण वे परमात्मा साकार-भगवान् कहे जाने योग्य हैं। . उन अहतभगवान्में, जिन्होंने पूर्व में तीर्थकर नामकर्मका शुभयोग उत्पन्न किया है, वे तीर्थकरभगवान् कहे जाते हैं। उनका प्रताप उपदेश-बल आदि महत्पुण्ययोगके उदयसे आश्चर्यकारक शोभाको प्रास होता है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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