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________________ श्रीमद् जिचन्द्र [पैत्र ६९१ - ५. अन्यसे न्यून पराभव. ६. जहाँ जहाँ अन्य सब विकल हैं वहाँ वहाँ यह अविकल है। तथा जहाँ यह अविकल दिखाई देता है, वहीं अन्य किसीकी कचित् अविकलता रहती है, अन्यथा नहीं । *६९१ बम्बई, श्रावण १९५० (१) १. जिस पत्रमें प्रत्यक्ष-आश्रयका स्वरूप लिखा वह पत्र यहाँ मिला है । मुमुक्षु जीवको परम भक्तिसहित उस स्वरूपकी उपासना करनी चाहिये । २. जो सत्पुरुष योग-बलसहित-जिनका उपदेश बहुतसे जीवोंको थोड़े ही प्रयाससे मोक्षका साधनरूप हो सके ऐसे अतिशयसहित–होता है, वह जिस समय उसे प्रारब्धके अनुसार उपदेशव्यवहारका उदय प्राप्त होता है, उसी समय मुख्यरूपसे प्रायः उस भक्तिरूप प्रत्यक्ष-आश्रय-मार्गको प्रकाशित करता है। वैसे उदय-योगके बिना वह प्रायः उसे प्रकाशित नहीं करता। ३. सत्पुरुष जो प्रायः दूसरे किसी व्यवहारके योगमें मुख्यरूपसे उस मार्गको प्रकाशित नहीं करते, वह तो उनका करुणा-स्वभाव है । जगत्के जीवोंका उपकार पूर्वापर विरोधको प्राप्त न हो अथवा बहुतसे जीवोंका उपकार हो, इत्यादि अनेक कारणोंको देखकर अन्य व्यवहारमें प्रवृत्ति करते समय, सत्पुरुष वैसे प्रत्यक्ष-आश्रयरूप-मार्गको प्रकाशित नहीं करते । प्रायः करके तो अन्य व्यवहारके उदयमें वे अप्रकट ही रहते हैं । अथवा किसी प्रारब्धविशेषसे वे सत्पुरुषरूपसे किसीके जाननेमें आये भी हों, तो भी उसके पूर्वापर श्रेयका विचार करके, जहाँतक बने वहाँतक वे किसीके विशेष प्रसंगमें नहीं आते । अथवा वे बहुत करके अन्य व्यवहारके उदयमें सामान्य मनुष्यकी तरह ही विचरते हैं। १. तथा जिससे उस तरह प्रवृत्ति की जाय वैसा प्रारब्ध न हो तो जहाँ कोई उस उपदेशका अवसर प्राप्त होता है, वहाँ भी प्रायः करके वे प्रत्यक्ष-आश्रय-मार्गका उपदेश नहीं करते । कचित् प्रत्यक्ष-आश्रय-मार्गके स्थानपर 'आश्रय-मार्ग' इस सामान्य शब्दसे, अनेक प्रकारका हेतु देखकर ही, कुछ कहते हैं, अर्थात् वे उपदेश-व्यवहारके चलानेके लिये उपदेश नहीं करते। प्रायः करके जो किन्हीं मुमुक्षुओंको हमारा समागम हुआ है, उनको हमारी दशाके संबंधमें थोड़ेबहुत अंशसे प्रतीति है । फिर भी यदि किसीको भी समागम न हुआ होता तो अधिक योग्य था। यहाँ जो कुछ व्यवहार उदयमें रहता है, वह व्यवहार आदि भविष्यमें उदयमें आने योग्य है, ऐसा मानकर, जबतक तथाउपदेश-व्यवहारका उदय प्राप्त न हुआ हो तबतक हमारी दशाके विषयमें तुम लोगोंको जो कुछ समझमें आया हो उसे प्रकाशित न करनेके लिये कहनमें, यही मुख्य कारण था, और अब भी है। *यह पत्र यहाँ २१ ३ वर्षका दिया गया है। -अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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