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________________ ६३६ श्रीमद् राजचन्द्र [६९२ आनन्दघन चौबीसी-विवेचन भरतक्षेत्रमें वर्तमान अवसर्पिणीकालमें श्रीऋषभदेवसे लगाकर श्रीवर्धमानतक ऐसे चौबीस तीर्थकर हो गये हैं। वर्तमानकालमें वे भगवान् सिद्धालयमें स्वरूपस्थितभावसे विराजमान हैं। परन्तु भूतप्रज्ञापनीय नयसे उनमें तीर्थंकरपदका उपचार किया जाता है। उस औपचारिक नयदृष्टिसे उन चौबीस भगवानोंके स्तवनरूप इन चौबीस स्तवनोंकी रचना की गई है। सिद्धभगवान् सर्वथा अमूर्तपदमें स्थित हैं इसलिये उनका स्वरूप सामान्यरूपसे चितवन करना कठिन है । तथा अर्हतभगवान्का स्वरूप भी मूलदृष्टिसे चिंतवन करना तो वैसा ही कठिन है, परन्तु सयोगीपदके अवलंबनपूर्वक चितवन करनेसे वह सामान्य जीवोंकी भी वृत्तिके स्थिर होनेका कुछ सुगम उपाय है। इस कारण अहंतभगवान्के स्तवनसे सिद्धपदका स्तवन हो जानेपर भी इतना विशेष उपकार समझकर, श्रीआनंदघनजीने चौबीस तीर्थंकरोंके स्तवनरूप इस चौबीसीकी रचना की है । नमस्कारमंत्रमें भी प्रथम अहंतपदके रखनेका यही हेतु है कि उनका हमारे प्रति विशेष उपकारभाव है। भगवान्के स्वरूपका चितवन करना यह परमार्थदृष्टियुक्त पुरुषोंको गौणतासे निजस्वरूपका ही चितवन करना है । सिद्धप्रामृतमें कहा है: जारिस सिद्धसहावो, तारिस सहावो सव्वजीवाणं । तम्हा सिद्धतरुई, कायव्वा भव्वजीवेहिं ॥ —जैसा सिद्धभगवान्का आत्मस्वरूप है, वैसा ही सब जीवोंकी आत्माका स्वरूप है, इसलिये भव्य जीवोंको सिद्धत्वमें रुचि करनी चाहिये । इसी तरह श्रीदेवचन्द्रस्वामीने श्रीवासुपूज्यके स्तवनमें कहा है । जिनपूजा रे ते निजपूजना-यदि यथार्थ मूलदृष्टिसे देखें तो जिनभगवान्की पूजा ही आत्म. स्वरूपका पूजन है। इस तरह स्वरूपकी आकांक्षा रखनेवाले महात्माओंने जिनभगवान्की और सिद्धभगवान्की उपासनाको स्वरूपकी प्राप्तिका हेतु माना है। क्षीणमोह गुणस्थानतक उस स्वरूपका चितवन करना जीवको प्रबल अवलंबन है। तथा मात्र अकेले अध्यात्मस्वरूपका चितवन जीवको व्यामोह पैदा करता है, बहुतसे जीवोंको वह शुष्कता प्राप्त कराता है, अथवा स्वेच्छाचारिता उत्पन्न करता है, अथवा उन्मत्त प्रलाप-दशा उत्पन्न करता है । तथा भगवान्के स्वरूपके ध्यानके अवलंबनसे भक्तिप्रधान दृष्टि होती है और अध्यात्मदृष्टि गौण होती है। इससे शुष्कता, स्वेच्छाचारिता और उन्मत्त-अलापित्व नहीं होता। आत्मदशा प्रबल होनेसे खाभाविक अध्यात्मप्रधानता होती है; आत्मा उच्च गुणोंका सेवन करती है, अर्थात् शुष्कता आदि दोष उत्पन्न नहीं होते; और भक्तिमार्गके प्रति भी जुगुप्सा नहीं होती; तथा स्वाभाविक आत्मदशा स्वरूप-लीनताको प्राप्त करती जाती है। जहाँ अर्हत् आदिके स्वरूपके ध्यानके अवलंबनके बिना वृत्ति आत्माकारता सेवन करती है, वहाँ अपूर्ण..
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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