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________________ ६२८ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ६७५,६७६,६७७,६७८,६७९ ६७५ ववाणीआ, मंगसिर सुदी १२, १९५३ ___ सर्वसंग-परित्यागके प्रति वृत्तिका तथारूप लक्ष रहनेपर भी जिस मुमुक्षुको प्रारब्धविशेषसे उस योगका अनुदय रहा करता है, और कुटुम्ब आदिके प्रसंग तथा आजीविका आदिके कारण जिसकी प्रवृत्ति रहती है—जो न्यायपूर्वक करनी पड़ती है; परन्तु उसे त्यागके उदयको प्रतिबंधक समझकर जो उसे खेदपूर्वक ही करता है, ऐसे मुमुक्षुको यह विचारकर कि पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मानुसार ही आजीविका आदि प्राप्त होगी, मात्र निमित्तरूप प्रयत्न करना ही उचित है किन्तु भयसे आकुल होकर चिंता अथवा न्यायका त्याग करना उचित नहीं, क्योंकि वह तो केवल व्यामोह है। शुभ-अशुभ प्रारब्धके अनुसार प्राप्ति ही होती है। प्रयत्न तो केवल व्यावहारिक निमित्त है, इसलिये उसे करना उचित है, परन्तु चिंता तो मात्र आत्म-गुणका निरोध करनेवाली है, इसलिये उसका शान्त करना ही योग्य है। ६७६ ववाणीआ, मंगसिर वदी ११ बुध. १९५३ आरंभ तथा परिग्रहकी प्रवृत्ति आत्महितको अनेक प्रकारसे रोकनेवाली है; अथवा सत्समागमके योगमें एक विशेष अंतरायका कारण समझकर ज्ञानी-पुरुषोंने उसके त्यागरूपसे बाह्य संयमका उपदेश किया है। जो प्रायः तुम्हें प्राप्त है । तथा तुम यथार्थ भाव-संयमकी जिज्ञासासे प्रवृत्ति करते हो, इसलिये अमूल्य अवसर प्राप्त हुआ समझ कर सत्पुरुषोंके वचनोंकी अनुप्रेक्षाद्वारा, सत्शास्त्र अप्रतिबंधता और चित्तकी एकाग्रताको सफल करना उचित है। ६७७ ववाणीआ, मंगसिर वदी ११ बुध. १९५३ वैराग्य और उपशमको विशेष बढ़ानेके लिये भावनाबोध, योगवासिष्ठके आदिके दो प्रकरण, पंचीकरण इत्यादि ग्रंथोंका विचारना योग्य है । जीवमें प्रमाद विशेष है, इसलिये आत्मार्थके कार्यमें जीवको नियमित होकर भी उस प्रमादको दूर करना चाहिये-अवश्य दूर करना चाहिये । ६७८ ववाणीआ, पौष सुदी १० भौम. १९५३ विषम भावके निमित्तोंके बलवानरूपसे प्राप्त होनेपर भी जो ज्ञानी-पुरुष अविषम उपयोगसे रहे हैं, रहते हैं, और भविष्यमें रहेंगे, उन सबको बारम्बार नमस्कार है। उत्कृष्टसे उत्कृष्ट व्रत, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट तप, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट नियम, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट लब्धि, उत्कृष्टसे उत्कृष्ट ऐश्वर्य-ये जिसमें सहज ही समा जाते हैं, ऐसे निरपेक्ष अविषम उपयोगको नमस्कार हो । यही ध्यान है। ६७९ ववाणीआ, पौष सुदी ११ बुध. १९५३ राग-द्वेषके प्रत्यक्ष बलवान निमित्तोंके प्राप्त होनेपर भी जिसका आत्मभाव किंचिन्मात्र भी क्षोभको प्राप्त नहीं होता, उस ज्ञानीके ज्ञानका विचार करनेसे भी महा निर्जरा होती है, इसमें संशय नहीं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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