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________________ पत्र ६७२,६७१,६७४] विविध पत्र आदि संग्रह-३०वाँ वर्ष ६२७ करना कठिन हो तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। फिर भी जिसने एक उसे ही प्राप्त करनेके सिवाय दूसरा कोई भी लक्ष नहीं रक्खा, वह इस कालमें भी अवश्य ही उस मार्गको प्राप्त करता है। मुमुक्षु जीव लौकिक कारणोंमें अधिक हर्ष-विषाद नहीं करता। ६७२ ववाणीआ, मंगसिर सुदी ६ गुरु. १९५३ श्रीमाणेकचन्द्रकी देहके छूट जानेके समाचार मालूम हुए। सर्व देहधारी जीव मरणके समीप शरणरहित हैं। जिसने मात्र उस देहका प्रथमसे ही यथार्थ स्वरूप जानकर उसका ममत्व नष्ट कर, निज-स्थिरताको अथवा ज्ञानीके मार्गकी यथार्थ प्रतीतिको पा लिया है, वही जीव उस मरण-समयमें शरणसहित होकर प्रायः फिरसे देह धारण नहीं करता; अथवा मरणकालमें देहके ममत्वभावकी अल्पता होनेसे भी वह निर्भय रहता है। देहके छूटनेका समय अनियत है, इसलिये विचारवान पुरुष अप्रमादभावसे पहिलेसे ही उसके ममत्वके निवृत्त करनेके अविरोधी उपायोंका साधन करते हैं; और इसीका तुम्हें और हमें सबको लक्ष रखना चाहिये । यद्यपि प्रीति-बंधनसे खेद होना संभव है, परन्तु इसमें अन्य कोई उपाय न होनेसे, उस खेदको वैराग्यस्वरूपमें परिणमन करना ही विचारवानका कर्त्तव्य है । ६७३ ववाणीआ, मंगसिर सुदी १० सोम.१९५३ सर्वज्ञाय नमः योगवासिष्ठके आदिके दो प्रकरण, पंचीकरण, दासबोध तथा विचारसागर ये ग्रंथ तुम्हें विचार करने योग्य हैं । इनमेंसे किसी ग्रंथको यदि तुमने पहिले बाँचा हो तो भी उन्हें फिरसे बाँचना और विचारना योग्य है। ये ग्रंथ जैन-पद्धतिके नहीं हैं, यह जानकर उन ग्रंथोंका विचार करते हुए क्षोभ प्राप्त करना उचित नहीं। . लौकक दृष्टिमें जो जो बातें अथवा वस्तुयें-जैसे शोभायुक्त गृह आदि आरंभ, अलंकार आदि परिग्रह, लोक-दृष्टिकी विचक्षणता, लोकमान्य धर्मकी श्रद्धा-बडप्पनकी मानी जाती हैं उन सब बातों और वस्तुओंका ग्रहण करना प्रत्यक्ष जहरका ही ग्रहण करना है, इस बातको यथार्थ समझे बिना ही तुम उन्हें धारण करते हो, इससे उस वृत्तिका लक्ष नहीं होता। आरंभमें उन बातों और वस्तुओंके प्रति जहर-दृष्टि आना कठिन समझकर कायर न होते हुए पुरुषार्थ करना ही उचित है । ६७४ ववाणीआ, मंगसिर सुदी १२, १९५३ सर्वज्ञाय नमः १. आत्मसिद्धिकी टीकाके पृष्ठ मिले हैं। २. यदि सफलताका मार्ग समझमें आ जाय तो इस मनुष्यदेहका एक एक समय भी सर्वोत्कृष्ट चिंतामणि है, इसमें संशय नहीं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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