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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [पत्र ६६९,६७०,६७१ जहाँ सम्यग्दर्शनसहित विषयारंभकी निवृत्ति-राग-द्वेषका अभाव हो जाता है, वहाँ समाधिका सदुपाय जो शुद्धाचरण है वह प्रकट होता है ॥ ५॥ . ____ जहाँ इन तीनोंके आभिन्न स्वभावसे परिणमन होनेसे आत्मस्वरूप प्रकट होता है, वहाँ निश्चयसे अनन्य सुखदायक पूर्ण परमपदकी प्राप्ति होती है ॥ ६ ॥ जीव अर्जीव पदार्थ, तथा पुण्य, पाप, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा ये सात तत्व मिलकर नौ पदार्थ होते हैं ॥ ७॥ जीव अजीवमें इन नौ तत्त्वोंका समावेश हो जाता है। वस्तुका विशेषरूपसे विचार करनेके लिये महान् मुनिराजोंने इन्हें भिन्न भिन्न प्ररूपित किया है ॥ ८॥ ६६९ ववाणीआ, कार्तिक वदी २ शुक्र. १९५३ ज्ञानियोंने मनुष्यभवको चिंतामणि रत्नके समान कहा है, इसका यदि विचार करो तो यह प्रत्यक्ष समझमें आनेवाली बात है । विशेष विचार करनेसे तो. उस मनुष्यभवका एक एक समय भी चिंतामणि रत्नसे परम माहात्म्यवान और मूल्यवान मालूम होता है । तथा यदि वह मनुष्यभव देहार्थमें ही व्यतीत हो गया, तो वह एक फूटी कौड़ीकी कीमतका भी नहीं, यह निस्सन्देह मालूम होता है। ६७० ववाणीआ, कार्तिक वदी १५ शुक्र. १९५३ ॐ सर्वज्ञाय नमः जबतक देहका और प्रारब्धका उदय बलवान हो तबतक देहसंबंधी कुटुम्बको-जिसका भरणपोषण करनेका संबंध न छूट सकनेवाला हो, अर्थात् गृहवासपर्यंत जिसका भरण-पोषण करना उचित हो-यदि भरण-पोषण मात्र मिलता हो, तो उसमें मुमुक्षु जीव संतोष करके आत्महितका ही विचार और पुरुषार्थ करता है। वह देह और देहसंबंधी कुटुम्बके माहाल्य आदिके लिये परिग्रह आदिकी परिणामपूर्वक स्मृतिको भी नहीं होने देता। क्योंकि वे परिग्रह आदिकी प्राप्ति आदि ऐसे कार्य हैं कि वे बहुत करके आत्महितके अवसरको ही प्राप्त नहीं होने देते। ६७१ ववाणीआ, मंगसिर सुदी १ शनि. १९५३ ॐ सर्वज्ञाय नमः अल्प आयु, अनियत प्राप्ति, असीम-बलवान-असत्संग, प्रायःकरके पूर्वकी अनाराधकता, बलवीर्यकी हीनता-इन कारणोंसे रहित जहाँ कोई विरला ही जीव होगा, ऐसे इस कालमें, पूर्वमें कभी भी न जाना हुआ, प्रतीति न किया हुआ, आराधन न किया हुआ, और स्वभावसे असिद्ध ऐसा मार्ग प्राप्त · विषयारंभ निवृत्ति, रागद्वेषनो अभाव ज्यां थाय । सहित सम्यग्दर्शन, शुद्धाचरण स्यां समाधि सनुपाय ॥ ५॥ त्रणे अभिन्न स्वभावे, परिणमी आत्मस्वरूप ज्यां थाय । पूर्ण परमपदप्रालि, निश्चययी त्या अनन्य सुखदाय ॥५॥ - जीव अजीव पदार्थो, पुण्य पाप आसव तथा बंध । संवर निर्जरा मोस, तत्व का नव पदार्थ संबंध ॥७॥ जीव अजीव विषे ते, नवे तखनो समावेश धाय । वस्तु विचार विशेषे, मिन प्रबोण्या महान मुनिराय ॥ ८॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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