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________________ ६६.] मात्मसिद्धि इस तरह है............ । उसका शब्दार्थ इस प्रकार है ............ । उसका विशेषार्थ टीकाकारने इस तरह किया है ............। उसमें किसी भी जगह यह नहीं कहा कि अभव्यका पार किया हुआ पार होता है, और किसी टब्बामें किसीने जो यह वचन लिखा है, वह उसकी समझकी अयथार्थता ही मालूम होती है। ___ कदाचित् कोई इसका यह अर्थ करे कि 'जो अभव्य कहता है वह यथार्थ नहीं है-ऐसा भासित होनेके कारण यथार्थ लक्ष होनेसे जीव स्व-विचारको प्राप्त कर पार हो जाता है, तो वह किसी तरह संभव है । परन्तु उससे यह नहीं कहा जा सकता कि । अभव्यका पार किया हुआ पार हो जाता है । यह विचारकर जिस मार्गसे अनंत जीव पार हुए हैं, पार होते हैं और पार होंगे, उस मार्गका अवगाहन करना, और स्वकल्पित अर्थका मान आदिकी रक्षा छोड़कर त्याग करना ही श्रेयस्कर है। यदि तुम ऐसा कहो कि जीव अभव्यसे पार होता है, तो इससे तो अवश्य निश्चय होता है कि असद्गुरु ही पार करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं । तथा अशोच्या-केवलीको, जिन्होंने पूर्वमें किसीसे धर्म नहीं सुना, किसी तथारूप आवरणके क्षय होनेसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसा जो शास्त्रमें निरूपण किया है, वह आत्माके माहात्म्यको बतानेके लिये, और जिसे सद्गुरुका योग न हो उसे जाग्रत करनेके लिये और उस उस अनेकांत मार्गका निरूपण करनेके लिये ही प्रदर्शित किया है । उसे कुछ सद्गुरुकी आज्ञासे प्रवृत्ति करनेके मार्गको उपेक्षित करनेके लिये प्रदर्शित नहीं किया। तथा यहाँ तो उल्टे उस मार्गके ऊपर दृष्टि आनेके लिये ही उसे अधिक मजबूत किया है। किन्तु अशोच्या-केवली ............ अर्थात् अशोच्या-केवलीके इस प्रसंगको सुनकर किसीसे जो शाश्वत मार्ग चला आता है, उसका निषेध करनेका यहाँ आशय नहीं, ऐसा समझना चाहिये । किसी तीव्र आत्मा को कदाचित् ऐसे सद्गुरुका योग न मिला हो, और उसे अपनी तीव्र कामना कामनामें ही निज-विचारमें पड़ जानेसे, अथवा तीव्र आत्मार्थके कारण निज-विचारमें पड़ जानेसे आत्मज्ञान हो गया हो तो सद्गुरुके मार्गकी उपेक्षा न कर, और 'मुझे सद्गुरुसे ज्ञान नहीं मिला, इसलिये मैं बड़ा हुँ,' ऐसा भाव न रख, विचारवान जीवको जिससे शाश्वत मोक्षमार्गका लोप न हो, ऐसे वचन प्रकाशित करने चाहिये । एक गाँवसे दूसरे गाँवमें जाना हो और जिसने उस गाँवका मार्ग न देखा हो, ऐसे किसी पचास बरसके पुरुषको भी-यद्यपि वह लाखों गाँव देख आया हो-उस मार्गकी खबर नहीं पड़ती। किसीसे पूंछनेपर ही उसे उस मार्गकी खबर पड़ती है, नहीं तो वह भूल खा जाता है और यदि उस मार्गका जाननेवाला कोई दस बरसका बालक भी उसे उस मार्गको दिखा दे तो उससे वह इष्ट स्थानपर पहुँच सकता है-यह बात लौकिक व्यवहारमें भी प्रत्यक्ष है । इसलिये जो आत्मार्थी हो, अथवा जिसे मात्मार्थकी इच्छा हो उसे, सद्गरुके योगसे पार होनेके अभिलाषी जीवका जिससे कल्याण हो, उस मार्गका लोप करना योग्य नहीं । क्योंकि उससे सर्व ज्ञानी-पुरुषोंकी आज्ञा लोप करने जैसा ही होता है। आशंकाः- पूर्वमें सद्गुरुका योग तो अनेक बार हुआ है, फिर भी जीवका कल्याण नहीं
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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