SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 678
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भीमद राजचन्द्र [६६० हुआ। इससे सद्गुरुके उपदेशकी ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं देती।' इसका उत्तर दूसरे पदमें कहा है। उत्तरः--जो अपने पक्षको त्यागकर सद्गुरुके चरणकी सेवा करता है, वह परमार्थ प्राप्त करता है । अर्थात् पूर्वमें सद्गुरुके योग होनेकी तो बात सत्य है, परन्तु वहाँ जीवने उस सद्गुरुको जाना ही नहीं, उसे पहिचाना ही नहीं, उसकी प्रतीति ही नहीं की, और उसके पास अपना मान और मत छोड़ा ही नहीं, और इस कारण उसे सद्गुरुका उपदेश लगा नहीं, और परमार्थकी प्राप्ति हुई नहीं । जीव इस तरह यदि अपने मत अर्थात् स्वच्छंद और कुलधर्मका आग्रह दूर कर सदुपदेशके ग्रहण करनेका अभिलाषी हुआ होता तो अवश्य ही परमार्थको पा जाता । ____ आशंकाः-यहाँ असद्गुरुसे दृढ़ कराये हुए दुर्बोधसे अथवा मान आदिकी तीव्र कामनासे यह भी आशंका हो सकती है कि कितने ही जीवोंका पूर्वमें कल्याण हुआ है, और उन्हें सद्वरुके चरणकी सेवा किये बिना ही कल्याणकी प्राप्ति हो गई है। अथवा असद्गुरुसे भी कल्याणकी प्राप्ति होती है । असद्गुरुको भले ही स्वयं मार्गकी प्रतीति न हो, परन्तु वह दूसरेको उसे प्राप्त करा सकता है। अर्थात् दूसरा कोई उसका उपदेश सुनकर उस मार्गकी प्रतीति करे, तो परमार्थको पा सकता है। इसलिए सद्गुरुके चरणकी सेवा किये बिना भी परमार्थकी प्राप्ति हो सकती है। .उत्तरः-- यद्यपि कोई जीव स्वयं विचार करते हुए बोधको प्राप्त हुए हैं—ऐसा शास्त्रमें प्रसंग आता है, परन्तु कहीं ऐसा प्रसंग नहीं आता कि अमुक जीवने असद्गुरुसे बोध प्राप्त किया है। अब, किसीने स्वयं विचार करते हुए बोध प्राप्त किया है, ऐसा जो कहा है, उसमें शास्त्रोंके कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि 'सद्गुरुकी आज्ञासे चलनेसे जीवका कल्याण होता है, ऐसा हमने जो कहा है वह बात यथार्थ नहीं;' अथवा सद्गुरुकी आज्ञाका जीवको कोई भी कारण नहीं है, यह कहनेके लिये भी वैसा नहीं कहा । तथा जीवोंने अपने विचारसे स्वयं ही बोध प्राप्त किया है, ऐसा जो कहा है, सो उन्होंने भी यद्यपि वर्तमान देहमें अपने विचारसे अथवा बोधसे ही ज्ञान प्राप्त किया है। परन्तु पूर्वमें वह विचार अथवा बोध सद्गुरुने ही उनके सन्मुख किया है, और उसीसे वर्तमानमें उसका स्फुरित होना संभव है। तथा तीर्थकर आदिको जो स्वयंबुद्ध कहा है, सो उन्होंने भी पूर्वमें तीसरे भवमें सद्गुरुसे ही निश्चय समकित प्राप्त किया है, ऐसा बताया है। अर्थात् जो स्वयंबुद्धपना कहा है वह वर्तमान देहकी अपेक्षासे ही कहा है, उस सद्गुरुके पदका निषेध करनेके लिये उसे नहीं कहा । और यदि सद्गुरु-पदका निषेध करें तो फिर तो 'सदेव, सद्गुरु और सद्धर्मकी प्रतितिके बिना समकित नहीं होता' यह जो बताया है, वह केवल कथनमात्र ही हुआ। ____ अथवा जिस शास्त्रको तुम प्रमाण कहते हो, वह शास्त्र सद्गुरु जिनमगवान्का कहा हुआ है, इस कारण उसे प्रामाणिक मानना चाहिये ! अथवा वह किसी असद्गुरुका कहा हुआ है इस कारण उसे प्रामाणिक मानना चाहिये ! यदि असद्गुरुके शास्त्रोंको भी प्रामाणिक माननेमें बाधा न हो तो फिर अज्ञान और राग-द्वेषके सेवन करनेसे भी मोक्ष हो सकती है, यह कहनेमें भी कोई बाधा नहीं यह विचारणीय है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy