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________________ mec श्रीमद् राजचन्द्र - आशंकाः-बहुतसोंको क्रिया-जड़ता रहती है और बहुतसोंको शुष्क-ज्ञानीपना रहता है, उसका क्या कारण होना चाहिये ! समाधान:--जो अपने पक्ष अर्थात् मतको छोड़कर सद्गुरुके चरणकी सेवा करता है, वह पदार्थको प्राप्त करता है, और निजपदका अर्थात् आत्म-स्वभावका लक्ष ग्रहण करता है । अर्थात् बहुतसोंको जो क्रिया-जड़ता रहती है, उसका हेतु यही है कि उन्होंने, जो आत्मज्ञान और आत्मज्ञानके साधनको नहीं जानता, ऐसे असद्गुरुका आश्रय ले रक्खा है । इससे वह असद्गुरु उन्हें, वह अपने जो मात्र क्रिया-जड़ताके अर्थात् कायक्लेशके मार्गको जानता है, उसीमें लगा लेता है, और कुल-धर्मको दृढ़ कराता है । इस कारण उन्हें सद्गुरुके योगके मिलनेकी आकांक्षा भी नहीं होती, अथवा वैसा योग मिलनेपर भी उन्हें पक्षकी दृढ़ वासना सदुपदेशके सन्मुख नहीं होने देती; इसलिये क्रिया-जड़ता दूर नहीं होती, और परमार्थकी प्राप्ति भी नहीं होती। - तथा जो शुष्क-ज्ञानी है, उसने भी सद्गुरुके चरणका सेवन नहीं किया और केवल अपनी मतिकी कल्पनासे ही स्वच्छंदरूपसे अध्यात्मके ग्रन्थ पढ़ लिये हैं। अथवा किसी शुष्क-ज्ञानीके पाससे वैसे ग्रन्थ अथवा वचनोंको सुनकर अपनेमें ज्ञानीपना मान लिया है; और ज्ञानी मनवानेके पदका जो एक प्रकारका मान है, उसमें उसे मिठास रहती आई है, और यह उसका पक्ष ही हो गया है। थवा किसी विशेष कारणसे शास्त्रों में दया, दान और हिंसा, पूजाकी जो समानता कही है, उन वचनोंको, उसका परमार्थ समझे बिना ही, हाथमें लेकर, केवल अपनेको ज्ञानी मनवानेके लिये, और पामर जीवोंके तिरस्कारके लिये, वह उन वचनोंका उपयोग करता है । परन्तु उन वचनोंको किस लक्षसे समझनेसे परमार्थ होता है, यह नहीं जानता । तथा जैसे दया, दान आदिकी शास्त्रोंमें निष्फलता कही है, उसी तरह नवपूर्वतक पढ़ लेनेपर भी वे निष्फल चले गये-इस तरह ज्ञानकी भी निष्फलता कही है और वह तो शुष्क-ज्ञानका ही निषेध है। ऐसा होनेपर भी उसे उसका लक्ष होता नहीं। क्योंकि वह अपनेको ज्ञानी मानता है इसलिये उसकी आत्मा मूढताको प्राप्त हो गई है, इस कारण उसे विचारका अवकाश ही नहीं रहा । इस तरह क्रिया-जड़ अथवा शुष्क-ज्ञानी दोनों ही भूले हुए हैं, और वे परमार्थ पानेकी इच्छा रखते हैं, अथवा वे कहते हैं कि हमने परमार्थ पा लिया है । यह केवल उनका दुराग्रह है-यह प्रत्यक्ष मालूम होता है। यदि सद्गुरुके चरणका सेवन किया होता तो ऐसे दुराग्रहमें पड़ जानेका समय न आता, जीव आत्म-साधनमें प्रेरित होता, तथारूप साधनसे परमार्थकी प्राप्ति करता, और निजपदके लक्षको ग्रहण करता; अर्थात् उसकी वृत्ति आत्माके सन्मुख हो जाती । तथा जगह जगह एकाकीरूपसे विचरनेका जो निषेध है, और सद्गुरुकी ही सेवामें विचरनेका जो उपदेश किया है, इससे भी यही समझमें आता है कि वही जीवको हितकारी और मुख्य मार्ग है। तथा असद्गुरुसे भी कल्याण होता है, ऐसा कहना तो तीर्थकर आदिकी-ज्ञानीकी-आसातना करनेके ही समान है। क्योंकि फिर तो उनमें और असद्गुरुमें कोई भी भेद नहीं रहा–फिर तो जन्मांधमें और अत्यंत शुद्ध निर्मल चक्षुवाले में कुछ न्यूनाधिकता ही न ठहरी। तथा श्रीठाणांगसूत्रकी चौभंगी ग्रहण करके कोई ऐसा कहे कि 'अभ-यका पार किया हुआ भी पार हो जाता है, तो वह वचन भी ‘वदतो व्याघात' जैसा ही है। क्योंक पाहल तो मूलमें ठाणांगमें वह पाठ ही नहीं; और जो पाठ है वह
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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