SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् राजचन्द्र [६४१. प्रयोजनके बिना व्यर्थकी बातें करनी नहीं । जहाँ माथापची होती हो वहाँसे दूर रहना चाहियेवृत्ति कम करनी चाहिये । .. क्रोध, मान, माया, लोभको मुझे कम करना है, ऐसा जब लक्ष होगा-जब उसका थोड़ा थोड़ा भी लक्ष्य किया जायगा-तब बादमें वह सरल हो जायगा । आत्माको आवरण करनेवाले दोष जब जाननेमें आ जॉय तब उन्हें दूर भगानेका अभ्यास करना चाहिये । क्रोध आदिके थोड़े थोडे कम होनेके बाद सब सहज हो जायगा । बादमें उन्हें नियममें लेनेके लिये जैसे बने अभ्यास रखना चाहिये और विचारमें समय बिताना चाहिये । किसीके प्रसंगसे क्रोध आदिके उत्पन्न होनेका निमित्त हो तो उसे मानना नहीं चाहिये; क्योंकि जब स्वयं ही क्रोध करें तभी क्रोध होता है। जिस समय अपनेपर कोई क्रोध करे, उस समय विचारना चाहिये कि उस बिचारेको हालमें उस प्रकृतिका उदय है; यह स्वयं ही घड़ी दो घड़ीमें शांत हो जायगा । इसलिये जैसे बने तैसे अंतर्विचार कर स्वयं स्थिर रहना चाहिये। क्रोध आदि कषायको हमेशा विचार विचारकर कम करना चाहिये । तृष्णा कम करनी चाहिये । क्योंकि वह एकांत दुःखदायी है। जैसा उदय होगा वैसा होगा, इसलिये तृष्णाको अवश्य कम करना चाहिये । बाह्य प्रसंगोंको जैसे बने वैसे कम करना चाहिये। चेलातीपुत्रने किसीका सिर काट लिया था। बादमें वह ज्ञानीको मिला, और कहा कि मोक्ष दे, नहीं तो तेरा भी सिर काट डालूँगा। इसपर ज्ञानीने कहा कि क्या तू ठीक कहता है ? विवेक (सच्चेको सच्चा समझना), शम (सबके ऊपर समभाव रखना) और उपशम (वृत्तियोंको बाहर न जाने देना और अंतर्वृत्ति रखना) को विशेषातिविशेष आत्मामें परिणमानेसे आत्माको मोक्ष मिलती है। कोई सम्प्रदायवाला कहता है कि वेदांतियोंकी मुक्तिकी अपेक्षा-इस भ्रम-दशाकी अपेक्षातो चार गतियाँ ही श्रेष्ठ हैं। इनमें अपने आपको सुख दुःखका अनुभव तो रहता है। सिद्धमें संवर नहीं कहा जाता, क्योंकि वहाँ कर्म आते नहीं, इसलिये फिर उनका निरोध भी नहीं होता । मुक्तमें एक गुणसे-अंशसे-लगाकर सम्पूर्ण अंशोंतक स्वभाव ही रहता है। सिद्धदशामें स्वभावसुख प्रगट हो गया है, कर्मके आवरण दूर हो गये हैं, तो फिर अब संवर-निर्जरा किसे रहेंगे ! वहाँ तीन योग भी नहीं होते । मिथ्यात्त्र, अवत, प्रमाद, कषाय, योग इन सबसे मुक्त उनको कर्मीका आगमन नहीं होता। इसलिये उनके कर्मोंका निरोध भी नहीं होता। जैसे एक हजारकी रकम हो, और उसे थोड़ी थोड़ी पूरी कर दें तो खाता बंद हो जाता है। इसी तरह कर्मके जो पाँच कारण थे, उन्हें संवर-निर्जरासे समाप्त कर दिया, इसलिये पाँच कारणोंरूपी खाता बंद हो गया, अर्थात् वह फिर पीछेसे किसी भी तरह प्राप्त नहीं होता। धर्मसंन्यास-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि दोषोंका छेदन करना । जीव तो सदा जीवित ही है। यह किसी समय भी सोता नहीं अथवा मरता नहीं-मरना उसका संभव नहीं । स्वभावसे सब जीव जीवित ही हैं । जैसें श्वासोच्छासके बिना कोई जीव देखने आता नहीं, उसी तरह ज्ञानस्वरूप चैतन्यके बिना कोई जीव नहीं है। आत्माकी निंदा करना चाहिये और ऐसा खेद करना चाहिये जिससे वैराग्य उत्पन्न होसंसार मिथ्या मालूम हो । चाहे कोई भी मर जाय परन्तु जिसकी आँखमें आँसू आ जॉय-संसारको
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy