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________________ ६४३] उपदेश-छाया ५६३. समकितीको केवलज्ञानकी इच्छा नहीं। ___ अज्ञानी गुरुओंने लोगोंको कुमार्गपर चढ़ा दिया है; उल्टा पकड़ा दिया है। इससे लोग गच्छ, कुल, आदि लौकिक भावोंमें तदाकार हो गये हैं । अज्ञानियोंने लोकको एकदम मिथ्या ही मार्ग समझा दिया है। उनके संगसे इस कालमें अंधकार हो गया है। हमारी कही हुई हरेक-प्रत्येक-बातको याद कर करके विशेषरूपसे पुरुषार्थ करना चाहिये। गच्छ आदिके कदाग्रहको छोड़ देना चाहिये । जीव अनादि कालसे भटक रहा है। यदि समकित हो तो सहज ही समाधि हो जाय, और अन्तमें कल्याण हो । जीव सत्पुरुषके आश्रयसे यदि आज्ञाका सच्चा सच्चा आराधन करे, उसके ऊपर प्रतीति लावे, तो अवश्य ही उपकार हो। . एक ओर तो चौदह राजू लोकका सुख हो, और दूसरी ओर सिद्धके एक प्रदेशका सुख हो, तो भी सिद्धके एक प्रदेशका सुख अनंतगुना हो जाता है । वृत्ति चाहे किसी भी तरह हो रोकना चाहिये, ज्ञान-विचारसे रोकना. चाहिये, लोक-लाजसे रोकना चाहिये, उपयोगसे रोकना चाहिये, किसी भी तरह हो वृत्तिको रोकना चाहिये । मुमुक्षुओंको, किसी अमुक पदार्थके बिना न चले ऐसा नहीं रखना चाहिये ।। . जीव जो अपनापन मानता है, वही दुःख है; क्योंकि जहाँ अपनापन माना और चिंता हुई कि अब कैसे होगा ! अब कैसे करें ! चिंतामें जो स्वरूप हो जाता है, वही अज्ञान है। विचारके द्वारा, ज्ञानके द्वारा देखा जाय तो मालूम होता है कि कोई अपना नहीं । यदि एककी चिंता करो तो समस्त जगत्की ही चिंता करनी चाहिये। इसलिये हरेक प्रसंगमें अपनापन होते हुए रोकना चाहिये, तोही चिंता कल्पनाकम होगी । तृष्णाको जैसे बने कम करना चाहिये । विचार कर करके तृष्णाको कम करना चाहिये । इस देहको कुल पचास-सौ रुपयेका तो खर्च चाहिये, और उसके बदले वह हजारों लाखोंकी चिंता कर अग्निसे सारे दिन जला करती है। बाह्य उपयोग तृष्णाकी वृद्धि होनेका निमित्त है । जीव मान-बड़ाईके कारण तृष्णाको बढ़ाता है, उस मान-बड़ाईको रखकर मुक्ति होती नहीं । जैसे बने वैसे मान-बड़ाई, तृष्णाको कम करना चाहिये । निर्धन कौन है ! जो धन माँगे-धनकी इच्छा करे—वह निर्धन है। जो न माँगे वह धनवान है। जिसे लक्ष्मीकी विशेष तृष्णा, उसकी दुविधा, पीड़ा है, उसे जरा भी सुख नहीं। लोग समझते हैं कि श्रीमंत लोग सुखी हैं, परन्तु वस्तुतः उनके तो रोम रोममें पीड़ा है, इसलिये तृष्णाको घटाना चाहिये। आहारकी बात अर्थात् खानेके पदार्थोकी बात तुच्छ है, उसे करना नहीं चाहिये । विहारकी अर्थात् क्रीडाकी बात बहुत तुच्छ है । निहारकी बात भी बहुत तुच्छ है । शरीरकी साता और दीनता ये सब तुच्छताकी बातें करनी नहीं चाहिये । आहार विष्टा है। विचार करो कि खानेके पीछे विष्टा हो जाती है। विष्टा गाय खाती है तो दूध हो जाता है; और खेतमें खाद डालनेसे अनाज हो जाता है। इस तरह उत्पन्न हुए अनाजके आहारको विष्टातुल्य समझ, उसकी चर्चा न करनी चाहिये। वह तुच्छ बात है। सामान्य जीवोंसे सर्वथा मौन नहीं रहा जाता, और यदि रहें भी तो अंतरकी कल्पना दूर होती नहीं; और जबतक कल्पना रहे तबतक उसके लिये कोई रास्ता निकालना ही चाहिये । इसलिये पीछेसें वे. लिखकर कल्पनाको बाहर निकालते हैं। परमार्थ काममें बोलना चाहिये । व्यवहार : काममें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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