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________________ ५६६ - श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ • शरीरके धर्म-रोग आदि केवलीके भी होते हैं, क्योंकि वेदनीय कर्मको तो सबको भोगना ही पड़ता है । समकित आये बिना किसीकी सहज-समाधि होती नहीं। समकित होनेसे ही सहजसमाधि होती है । संमकित होनेसे सहजमें ही आसक्तिभाव दूर हो जाता है। उस दशामें आसक्तिभावके सहज निषेध करनेसे बंध रहता नहीं । सत्पुरुषके वचन अनुसार-उसकी आज्ञानुसारजो चले उसे अंशसे समकित हुआ है । दूसरे सब प्रकारकी कल्पनायें छोड़कर, प्रत्यक्ष सत्पुरुषकी आज्ञासे उनके वचन सुनना, उनकी सच्ची श्रद्धा करना, और उन्हें आत्मामें प्रवेश करना चाहिये, तो समकित होता है । शास्त्रमें कही हुई महावीरस्वामीकी आज्ञानुसार चलनेवाले जीव वर्तमानमें नहीं हैं। इसलिये प्रत्यक्षज्ञानी चाहिये । काल विकराल है। कुगुरुओंने लोकको मिथ्या मार्ग बताकर भुला दिया है—मनुष्यभव लूट लिया है तो फिर जीव मार्गमें किस तरह आ सकता है ! यद्यपि कुगुरुओंने लूट तो लिया है, परन्तु उसमें उन विचारोंका दोष नहीं, क्योंकि उन्हें उस मार्गकी खबर ही नहीं है । मिथ्यात्वरूपी तिल्लीकी गाँठ मोटी है, इसलिये सब रोग तो कहाँसे दूर हो सकता है ! जिसकी ग्रंथि छिन्न हो गई है, उसे सहजसमाधि होती है। क्योंकि जिसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया है, उसकी मूल गाँठ ही नष्ट हो गई, और उससे फिर अन्य गुण अवश्य ही प्रगट हो जाते हैं। • सत्पुरुषका बोध प्राप्त होना यह अमृत प्राप्त होनेके समान है। अज्ञानी गुरुओंने बिचारे मनुष्योंको छूट लिया है। किसी जीवको गच्छका आग्रह कराकर, किसीको मतका आग्रह कराकर, जिससे पार न हो सकें, ऐसे आलंबन देकर सब कुछ लूटकर व्याकुल कर डाला है-मनुष्य भवे ही लूट लिया है। समवसरणसे भगवान्की पहिचान होती है, इस सब माथापचीको छोड़ देना चाहिये । लाख समवसरण हों, परन्तु यदि ज्ञान न हो तो कल्याण नहीं होता; ज्ञान हो तो ही कल्याण होता है । भगवान् मनुष्य जैसे ही मनुष्य थे। वे खाते, पीते, उठते और बैठते थे-इन बातोंमें फेर नहीं है । फेर कुछ दूसरा ही है । समवसरण आदिके प्रसंग लौकिक-भावना है । भगवान्का स्वरूप ऐसा नहीं है। भगवान्का स्वरूप-सर्वथा निर्मल आत्मा-सम्पूर्ण ज्ञान प्रगट होनेपर प्रगट होता है। सम्पूर्ण ज्ञान प्रगट हो जाय यही भगवानका स्वरूप है। वर्तमानमें भगवान होता तो तुम उसे भी न मानते । भगवान्का माहात्म्य ज्ञान है । भगवान्के स्वरूपका चितवन करनेसे आत्मा भानमें आती हैं, परन्तु भगवान्की देहसे भान प्रगट नहीं होता। जिसके सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रगट हो जाय उसे भगवान् कहा जाता है। जैसे यदि भगवान् मौजूद होते और वे तुम्हें बताते तो तुम उन्हें भी न मानते, इसी तरह वर्तमानमें ज्ञानी मौजूद हो तो वह भी नहीं माना जाता। तथा स्वधाम पहुँचनेके बाद लोग कहतें हैं कि ऐसा ज्ञानी दुआ नहीं। और पीछेसे तो लोग उसकी प्रतिमाको पूजते हैं, परन्तु वर्तमानमें उसपर प्राति भी नहीं लाते । जीवको ज्ञानीको पहिचान वर्तमानमें होती नहीं। समकितका सच्चा सच्चा विचार करे तो नौवें समयमें केवलज्ञान हो जाय, नहीं तो एक भवमें केवलज्ञान होता है; और अन्तमें पन्दरहवें भवसे तो केवलज्ञान हो ही जाता है, इसलिये समकित सर्वोत्कृष्ट है । जुदा जुदा विचार-भेदोंको आत्मामें लाभ होनेके लिये ही कहा है, परन्तु भेदमें ही मात्माको घुमानेके लिये नहीं कहा । हरेकमें परमार्थ होना चाहिये। . . . . . . . .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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