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________________ ६४३] उपदेश-छाया ......--.. गहन आशयवाले दया वगैरह तो कहाँसे आवे ! विषय कषायसहित मोक्ष जाते नहीं । अंतःकरणकी शुद्धिके बिना आत्मज्ञान होता नहीं । भक्ति सब दोषोंका क्षय करनेवाली है, इसलिये वह सर्वोत्कृष्ट है। . जीवको विकल्पका व्यापार करना चाहिये नहीं। विचारवानको अविचार और अकार्य करते हुए क्षोम होता है । अकार्य करते हुए जिसे क्षोभ न हो वह अविचारवान है। अकार्य करते हुए प्रथम जितना कष्ट रहता है उतना कष्ट दूसरी बार करते हुए रहता नहीं। इसलिये पहिलेसे ही अकार्य करनेसे रुकना चाहिये-दृढ़ निश्चय कर अकार्य करना चाहिये नहीं । सत्पुरुष उपकारके लिये जो उपदेश करते हैं, उसे श्रवण करे और उसका विचार करे, तो अवश्य ही जीवके दोष घटें । पारस मणिका संयोग हुआ, और पत्थरका सोना न बना, तो या तो असली पारसमणि ही नहीं, या असली पत्थर ही नहीं। उसी तरह जिसके उपदेशसे आत्मा सुवर्णमय न हो, तो या ता उपदेष्टा ही सत्पुरुष नहीं और या उपदेश लेनेवाला ही योग्य जीव नहीं। जीव योग्य हो और सत्पुरुष सच्चा हो तो गुण प्रगट हुए बिना नहीं रहें । लौकिक आलम्बन कभी करना ही नहीं चाहिए । जीव स्वयं जागृत हो तो समस्त विपरीत कारण दूर हो जॉय । जैसे कोई पुरुष घरमें नींदमें पड़ा सो रहा है, उसके घरमें कुत्ते बिल्ली वगैरह घुस कर नुकसान कर जाँय, और बादमें जागनेके बाद वह पुरुष नुकसान करनेवाले कुत्ते आदि. प्राणियोंका दोष निकाले, किन्तु अपना दोष निकाले नहीं कि मैं सो गया था इसीलिये ऐसा हुआ है। इसी तरह जीव अपने दोषोंको देखता नहीं। स्वयं जागृत रहता हो तो समस्त विपरीत कारण दूर हो जॉय, इसलिये स्वयं जागृत रहना चाहिये । जीव ऐसा कहता है कि मेरे तृष्णा, अहंकार, लोभ आदि दोष दूर होते नहीं; अर्थात् जीव अपने दोष निकालता नहीं, और दोषोंके ही दोष निकालता है। जैसे गरमी बहुत पड़ रही हो और इसलिये बाहर न निकल सकते हों, तो जीव सूर्यका दोष निकालता है, परन्तु वह छतरी और जते, जो सूर्यके तापसे बचनेके लिये बताये हैं, उनका उपयोग करता नहीं। ज्ञानी-पुरुषोंने लौकिक भाव छोड़कर जिस विचारसे अपने दोष घटाये हैं-नाश किये हैं-उन विचारोंको और उन उपायोंको ज्ञानियोंने उपकारके लिये कहा है । उन्हें श्रवण कर जिससे आत्मामें परिणाम हो, वैसा करना चाहिये । किस तरहसे दोष घट सकता है ! जीव लौकिक भावोंको तो किये चला जाता है, और दोष क्यों घटते नहीं, ऐसा कहा करता है। मुमुक्षुओंको जागृत अति जागृत होकर वैराग्यको बढ़ाना चाहिये । सत्पुरुषके एक वचनको सुनकर यदि अपनेमें दोषोंके रहनेके कारण बहुत ही खेद करेगा, और दोषको घटावेगा तो ही गुण प्रगट होगा । सत्संग-समागमकी आवश्यकता है । बाकी सत्पुरुष तो, जैसे एक मार्गदर्शक दूसरे मार्गदर्शकको रास्ता बताकर चला जाता है, उसी तरह रास्ता बताकर चला जाता है । शिष्य बनानेकी सत्पुरुषकी इच्छा नहीं । जिसे दुराग्रह दूर हुआ उसे आत्माका भान होता है । भ्रान्ति दूर हो तो तुरत ही सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय । . बाहुबलिजीको, जैसे केवलज्ञान पासमें ही–अंतरमें ही-था कुछ बाहर न था, उसी तरह सम्यक्त्व अपने पास ही है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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