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________________ ३४३] उपदेश-छाया ५४३ मोह आदि विकार इस तरहके हैं कि जो सम्यग्दृष्टिको भी चलायमान कर डालते हैं; इसलिये तुम्हें तो ऐसा समझना चाहिये कि मोक्ष-मार्गके प्राप्त करनेमें वैसे अनेक विघ्न हैं। आयु तो थोड़ी है, और कार्य महाभारत करना है । जिस प्रकार नौका तो छोटी हो और बड़ा महासागर पार करना हो, उसी तरह आयु तो थोड़ी है और संसाररूपी महासागर पार करना है । जो पुरुष प्रभुके नामसे पार हुए हैं, उन पुरुषोंको धन्य है। अज्ञानी जीवको खबर नहीं कि अमुक जगह गिरनेकी है, परन्तु वह ज्ञानियोंद्वारा देखी हुई है । अज्ञानी-द्रव्य-अध्यात्मी-कहते हैं कि मेरेमें कषाय नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि चैतन्य-संयोगसे ही है। कोई मुनि गुफामें ध्यान करनेके लिये जा रहे थे । वहाँ एक सिंह मिल गया। मुनिके हाथमें एक लकड़ी थी। 'सिंहके सामने यदि लकड़ी उठाई जाय तो सिंह भाग जायगा,' इस प्रकार मनमें होनेपर मुनिको विचार आया कि 'मैं आत्मा अजर अमर हूँ, देहसे प्रेम रखना योग्य नहीं। इसलिये हे जीव ! यहीं खड़ा रह । सिंहका जो भय है वही अज्ञान है । देहमें मू के कारण ही भय है, इस प्रकारकी भावना करते करते वे दो घड़ीतक वहीं खड़े रहे, कि इतनेमें केवलज्ञान प्रगट हो गया । इसलिये विचार विचार दशामें बहुत ही अन्तर है। उपयोग जीवके बिना होता नहीं। जड़ और चैतन्य इन दोनोंमें परिणाम होता है। देहधारी जीवमें अध्यवसायकी प्रवृत्ति होती है, संकल्प-विकल्प उपस्थित होते हैं, परन्तु निर्विकल्पपना ज्ञानसे ही होता है । अध्यवसायका ज्ञानसे क्षय होता है । यही ध्यानका हेतु है । परन्तु उपयोग रहना चाहिये। धर्मध्यान और शुक्लध्यान उत्तम कहे जाते हैं। आर्त और रौद्रध्यान मिथ्या कहे जाते हैं । बाह्य उपाधि ही अध्यवसाय है । उत्तम लेश्या हो तो ध्यान कहा जाता है, और आत्मा सम्यक् परिणाम प्राप्त करती है। माणेकदासजी एक वेदान्ती थे। उन्होंने मोक्षकी अपेक्षा सत्संगको ही अधिक यथार्थ माना है। उन्होंने कहा है: निज छंदनसे ना मिले, हीरो बैकुंठ धाम । संतकृपासे पाईये, सो हरि सबसे ठाम । कुगुरु और अज्ञानी पाखंडियोंका इस कालमें पार नहीं। बड़े बड़े वरघोड़ा चढ़ावे, और द्रव्य खर्च करे-यह सब ऐसा जानकर कि मेरा कल्याण होगा । ऐसा समझकर हजारों रुपये खर्च कर डालता है। एक एक पैसेको झूठ बोल बोलकर तो इकट्ठा करता है और एक ही साथ हजारों रुपये खर्च कर देता है । देखो, जीवका कितना अधिक अज्ञान ! कुछ विचार ही नहीं आता ! आत्माका जैसा स्वरूप है, उसके उसी स्वरूपको यथाख्यात चारित्र' कहा है। भय अज्ञानसे है। सिंहका भय सिंहिनीको होता नहीं। नागका भय नागिनीको होता नहीं। इसका कारण यही है कि उनका अज्ञान दूर हो गया है। · · जबतक सम्यक्त्व प्रगट न हो तबतक मिथ्यात्व है, और जब मिश्र गुणस्थानकका नाश हो जाय तब सम्यक्त्व कहा जाता है । समस्त अज्ञानी पहिले गुणस्थानकमें हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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