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________________ ५४२ श्रीमद् राजचन्द्र [६४३ मर्यादाका लाभ लेना चाहिये । बाकी तिथि-विथिके भेदको छोड़ ही देना चाहिये । ऐसी कल्पना करना नहीं, ऐसी भंगजालमें पड़ना नहीं। आनन्दघनजीने कहा है: फळ अनेकांत लोचन न देखे, फळ अनेकांत किरिया करी बापडा, रडवडे चार गतिमाहि लेखे। अर्थात् जिस क्रियाके करनेसे अनेक फल हों वह क्रिया मोक्षके लिये नहीं है । अनेक क्रियाओंका फल मोक्ष ही होना चाहिये । आत्माके अंशोंके प्रगट होनेके लिये क्रियाओंका वर्णन किया गया है। यदि क्रियाओंका वह फल न हुआ हो तो वे सब क्रियायें संसारकी ही हेतु हैं। 'निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि' ऐसा जो कहा है, उसका हेतु कषायको विस्मरण करानका है, परन्तु लोग तो बिचारे एकदम आत्माको ही विस्मरण कर देते हैं ! जीवको देवगतिकी, मोक्षके सुखकी, और अन्य उस तरहकी कामनाकी इच्छा न रखनी चाहिये। पंचमकालके गुरु कैसे होते हैं, उसका एक संन्यासीका दृष्टान्तः कोई संन्यासी अपने शिष्यके घर गया । ठंड बहुत पड़ रही थी। भोजन करने बैठनेके समय शिष्यने स्नान करनेके लिये कहा, तो गुरुने मनमें विचार किया कि ' ठंड बहुत पड़ रही है और इसमें स्नान करना पड़ेगा', यह विचार कर संन्यासीने कहा कि मैंने तो ज्ञान-गंगाजलमें स्नान कर लिया है। शिष्य बुद्धिमान् था, वह समझ गया और उसने ऐसा रास्ता पकड़ा जिससे गुरुको कुछ शिक्षा मिले । शिष्यने गुरुजीको भोजन करनेके लिये मानपूर्वक बुला कर उन्हें भोजन कराया । प्रसाद लेनेके बाद गुरु महाराज एक कमरेमें सो गये । गुरुजीको जब प्यास लगी, तो उन्होंने शिष्यसे जल माँगा। इसपर शिष्यने तुरत ही जबाब दिया, ' महाराज, आप ज्ञान-गंगामेंसे ही जल ले लें।' जब शिष्यने ऐसा कठिन रास्ता पकड़ा तो. गुरुने स्वीकार किया कि मेरे पास ज्ञान नहीं है । देहकी साताके लिये ही मैंने स्नान न करनेके लिये ऐसा कह दिया था।' • मिथ्यादृष्टिके पूर्वके जप-तप अभीतक भी एक आत्महितार्थके लिये हुए नहीं ! आत्मा मुख्यरूपसे आत्मस्वभावसे आचरण करे, यह 'अध्यात्मज्ञान' । मुख्यरूपसे जिसमें आत्माका वर्णन किया हो वह 'अध्यात्मशास्त्र' । अक्षर (शब्द) अध्यात्मीका मोक्ष होता नहीं। जो गुण अक्षरों में कहे गये हैं, वे गुण यदि आत्मामें रहें तो मोक्ष हो जाय । सत्पुरुषोंमें भाव-अध्यात्म प्रगट रहता है। केवल वाणीके सुननेके लिये ही जो वचनोंको सुने, उसे शब्द-अध्यात्मी कहना चाहिये । शब्द-अध्यात्मी लोग अध्यात्मकी बातें करते हैं और महा अनर्थकारक आचरण करते हैं । इस कारण उन जैसोंको ज्ञान-दग्ध कहना चाहिये । ऐसे अध्यात्मियोंको शुष्क और अज्ञानी समझना चाहिये। ज्ञानी-पुरुषरूपी सूर्यके प्रगट होनेके पश्चात् सच्चे अध्यात्मी शुष्क रीतिसे आचरण करते नहीं, वे भाव-अध्यात्ममें ही प्रगटरूपसे रहते हैं । आत्मामें सच्चे सच्चे गुणोंके उत्पन्न होनेके बाद मोक्ष होती है । इस कालमें द्रव्य-अध्यात्मी ज्ञानदग्ध बहुत हैं । द्रव्य-अध्यात्मी केवल मंदिरके कलशको शोभाके समान हैं।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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