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________________ भीमद् राजचन्द्र । सत्शाख-सद्गुरुके आश्रयसे जो संयम होता है, उसे ' सरागसंयम' कहा जाता है । निवृत्ति अनिवृत्तिस्थानकका अन्तर पड़े तो सरागसंयममेसे वीतरागसंयम' पैदा होता है । उसे निवृत्ति अनिवृत्ति दोनों ही बराबर हैं। स्वच्छंदसे कल्पना होना ' भ्रान्ति ' है। यह तो इस तरह नहीं, इस तरह होगा' इस प्रकारका भाव 'शंका' है। समझनेके लिये विचार करके पूछनेको आशंका' कहते हैं। ____ अपने आपसे जो समझमें न आवे, वह 'आशंका मोहनीय है'। सञ्चा जान लिया हो और फिर भी सच्चा सच्चा भाव न आवे, वह भी आशंका मोहनीय है। अपने आपसे जो समझमें न आवे उसे पूंछना चाहिये । मूलस्वरूप जाननेके पश्चात् उत्तर विषयके संबंधमें यह किस तरह होगा, इस प्रकार जाननेके लिये जिसकी आकांक्षा हो उसका सम्यक्त्व नष्ट होता नहीं; अर्थात् वह पतित होता नहीं । मिथ्या भ्रान्तिका होना शंका है। मिथ्या प्रतीति अनंतानुबंधीमें ही गर्भित हो जाती है । नासमशीसे दोषका देखना मिथ्यात्व है । क्षयोपशम अर्थात् क्षय और उपशम हो जाना । (६) रालजका बाह्य प्रदेश, बड़के नीचे दोपरके दो बजे यदि ज्ञान-मार्गका आराधन करे तो रास्ते चलते हुए भी ज्ञान हो जाता है । समझमें आ जाय तो आत्मा सहजमें ही प्रगट हो जाय, नहीं तो जिन्दगी बीत जाय तो भी प्रगट न हो। केवल माहात्म्य समझना चाहिये । निष्काम बुद्धि और भक्ति चाहिये । अंतःकरणकी शुद्धि हो तो ज्ञान स्वतः ही उत्पन्न हो जाता । यदि ज्ञानीका परिचय हो तो ज्ञानकी प्राप्ति होती है । यदि किसी जीवको योग्य देखे तो ज्ञानी उसे कहता है कि समस्त कल्पना छोड़ देने जैसी ही हैं । ज्ञान ले । ज्ञानीको जीव यदि ओघ-संज्ञासे पहिचाने तो यथार्थ ज्ञान होता नहीं। जब ज्ञानीका त्याग-दृढ़ त्याग-आवे अर्थात् जैसा चाहिये वैसा यथार्थ त्याग करनेको ज्ञानी कहे, तो माया भुला देती है, इसलिये बराबर जागृत रहना चाहिये; और मायाको दूर करते रहना चाहिये । ज्ञानीके त्याग-ज्ञानीके बताये हुए त्याग के लिये कमर कसकर तैय्यार रहना चाहिये। जब सत्संग हो तब माया दूर रहती है । और सत्संगका संयोग दूर हुआ कि वह फिर तैय्यारकी तैय्यार खड़ी है । इसलिये बाह्य उपाधिको कम करना चाहिये । इससे विशेष सत्संग होता है। इस कारणसे बाह्य त्याग करना श्रेष्ठ है। ज्ञानीको दुःख नहीं । अज्ञानीको ही दुःख है । समाधि करनेके लिये सदाचरणका सेवन करना चाहिये । जो नकली रंग है वह तो नकली ही है। असली रंग ही सदा रहता है । ज्ञानीके मिलनेके पश्चात् देह छूट गई, अर्थात् देह धारण करना नहीं रहता, ऐसा समझना चाहिये । ज्ञानीके वचन प्रथम तो कडुवे लगते हैं, परन्तु पीछेसे मालूम होता है कि ज्ञानी-पुरुष संसारके अनन्त दुःखोंको दूर करता है। जैसे औषध कडुवी तो होती है, परन्तु वह दीर्घकालके रोगको दूर कर देती है।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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