SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 629
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४३] उपदेश-छाया ५४१ जैसा मनका परिणाम हो वैसा ही सामायिक होता है । मनका घोड़ा दौड़ता हो तो कर्मबंध होता है। मनका घोड़ा दौड़ता हो और सामायिक किया हो तो उसका फल कैसा हो! कर्मबंधको थोड़ा थोड़ा छोड़नेकी इच्छा करे तो छुटे । जैसे कोई कोठी भरी हो, और उसमेंसे कण कण करके निकाला जाय तो वह अंतमें खाली हो जाती है । परन्तु दृढ़ इच्छासे कर्मोको छोड़ना ही सार्थक है। ___ आवश्यक छह प्रकारके हैं:--सामायिक, चौवीसत्थो, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । सामायिक अर्थात् सावध-योगकी निवृत्ति । ___वाचना ( बाँचना ), पृच्छना ( पूंछना ), परिवर्तना ( फिर फिरसे विचार करना ) और धर्मकथा (धर्मविषयक कथा करनी ), ये चार द्रव्य हैं; और अनुप्रेक्षा ये भाव हैं । यदि अनुप्रेक्षा न आवे तो पहिले चार द्रव्य हैं। ___ अज्ञानी लोग ' आजकल केवलज्ञान नहीं है, मोक्ष नहीं है ' ऐसी हीन पुरुषार्थकी बातें करते हैं । ज्ञानीका वचन पुरुषार्थ प्रेरित करनेवाला होता है । अज्ञानी शिथिल है, इस कारण वह ऐसे हीन पुरुषार्थके वचन कहता है । पंचम कालकी, भवस्थितिकी अथवा आयुकी बातको मनमें लाना नहीं और इस तरहकी वाणी सुनना नहीं। कोई हीन-पुरुषार्थी बातें करे कि उपादान कारणकी क्या जरूरत है ? पूर्वमें अशोच्याकेवली हो ही गये हैं। तो ऐसी बातोंसे पुरुषार्थ-हीन न होना चाहिये । सत्संग और सत् साधनके बिना कभी भी कल्याण होता नहीं। यदि अपने आपसे ही कल्याण होता हो, तो मिट्टीमेंसे स्वयं ही घड़ा उत्पन्न हो जाया करे । परन्तु लाखों वर्ष व्यतीत हो जायँ फिर भी मिट्टी से घड़ा स्वयं उत्पन्न होता नहीं। उसी तरह उपादान कारणके बिना कल्याण होता नहीं । शास्त्रका वचन है कि तीर्थकरका संयोग हुआ और फिर भी कल्याण नहीं हुआ, उसका कारण पुरुषार्थ-रहितपना ही है। पूर्वमें उन्हें ज्ञानीका संयोग हुआ था फिर भी पुरुषार्थके बिना जैसे वह योग निष्फल चला गया; उसी तरह जो ज्ञानीका योग मिला है, और पुरुषार्थ न करो तो यह योग भी निष्फल ही चला जायगा । इसलिये पुरुषार्थ करना चाहिये, और तो ही कल्याण होगा । उपादान कारण श्रेष्ठ है। ऐसा निश्चय करना चाहिये कि सत्पुरुषके कारण—निमित्तसे--अनंत जीव पार हो गये हैं। कारणके बिना कोई जीव पार होता नहीं। अशोच्याकवलीको आगे पीछे वैसा संयोग मिला होगा। सत्संगके बिना समस्त जगत् डूब ही गया है ! मीराबाई महाभक्तिवान थी। __सुंदर आचरणवाले सुन्दर समागमसे समता आती है। समताके विचारके लिये दो घड़ी सामायिक करना कहा है। सामायिकमें मनके मनोरथको उल्टा सीधा चिंतन करे तो कुछ भी फल न हो । सामायिकका मनके दौड़ते हुए घोड़ेको रोकनेके लिये प्ररूपण किया है । एक पक्ष, संवत्सरीके दिवससंबंधी चौथकी तिथिका आग्रह करता है, और दूसरा पक्ष पाँचमकी तिथिका आग्रह करता है। आग्रह करनेवाले दोनों ही मिथ्यात्वी हैं । ज्ञानी-पुरुषोंने तिथियोंकी मर्यादा आत्माके लिये ही की है । क्योंकि यदि कोई एक दिन निश्चित न किया होता तो आवश्यक विधियोंका नियम रहता नहीं। आत्मार्थके लिये तिथिकी
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy