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________________ ४३२ भीमद् राजवन्द्र [पत्र ४७१, ४७४ उदासीन. *द्रव्य- एक लक्ष. । क्षेत्र- मोहमयी. काल- ८-१. भाव-उदयभाव. इच्छा . प्रारब्ध. ४७३ बम्बई, पौष वदी १० रवि. १९५१ (१) विषम संसारके बंधनको तोड़कर जो चल निकले, उन पुरुषोंको अनंत प्रणाम हैं. चित्तकी व्यवस्था यथायोग्य न होनेसे उदय प्रारब्धके सिवाय अन्य सब प्रकारोंमें असंगभाव रखना ही योग्य मालूम होता है; और वह वहाँतक कि जिनके साथ जान-पहिचान है, उनको भी हालमें भूल जाँय तो अच्छी बात । क्योंकि संगसे निष्कारण ही उपाधि बढ़ा करती है, और वैसी उपाधि सहन करने योग्य हालमें मेरा चित्त नहीं है । निरुपायताके सिवाय कुछ भी व्यवहार करनेकी इच्छा मालूम नहीं होती है; और जो व्यापार व्यवहारकी निरुपायता है, उससे भी निवृत्त होनेकी चिंतना रहा करती है । उसी तरह मनमें दूसरेको बोध करनेके उपयुक्त मेरी योग्यता हालमें मुझे नहीं लगती, क्योंकि जबतक सब प्रकारके विषम स्थानकोंमें समवृत्ति न हो तबतक यथार्थ आत्मज्ञान नहीं कहा जा सकता, और जबतक ऐसा हो तबतक तो निज अभ्यासकी रक्षा करना ही योग्य है, और हालमें उस प्रकारकी मेरी स्थिति होनेसे मैं इसी प्रकार रह रहा हूँ, वह क्षम्य है । क्योंक मेरे चित्तमें अन्य कोई हेतु नहीं है। वेदांत जगत्को मिथ्या कहता है, इसमें असत्य ही क्या है ? ४७४ . बम्बई, पौष १९५१ यदि ज्ञानी-पुरुषके दृढ़ आश्रयसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद सुलभ है तो फिर प्रतिक्षण आत्मोपयोगको स्थिर करने योग्य वह कठिन मार्ग उस ज्ञानी-पुरुषके दृढ़ आश्रयसे होना सुलभ क्यों न हो ? क्योंकि * यहाँ इस बातका फिरसे विचार किया मालूम होता है: प्रमः-एक लाख रुपया किस तरह प्राप्त हो? उत्तर:-उदासीन रहनेसे । प्रभः-बम्बई में किस तरह निवास हो? उत्तरमें कुछ नहीं कहा गया। प्रमः-एक वर्ष और आठ महीनेका काल किस तरह व्यतीत किया जाय ! उत्तर:-इच्छाभावसे। प्रभा-उदयभाव क्या है? उत्तर:-प्रारब्ध। -अनुवादक.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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