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________________ पत्र ४७५] विविध पत्र आदि संग्रह-नयाँ वर्ष ४३३ उस उपयोगकी एकाग्रताके बिना तो मोक्षपदकी उत्पत्ति है ही नहीं। ज्ञानी-पुरुषके वचनका दृढ़ आश्रय जिसको हो जाय उसको सर्व साधन सुलभ हो जाते हैं, ऐसा अखंड निश्चय सत्पुरुषोंने किया है। तो फिर हम कहते हैं कि इन वृत्तियोंका जय करना ही योग्य है। उन वृत्तियोंका जय क्यों नहीं हो सकता ! इतना तो सत्य है कि इस दुःषम कालमें सत्संगकी समीपता अथवा दृढ़ आश्रय अधिक चाहिये, और असत्संगसे अत्यन्त निवृत्ति चाहिये तो भी मुमुक्षुके लिये तो यही उचित है कि कठिनसे कठिन आत्म-साधनकी ही प्रथम इच्छा करे, जिससे सर्व साधन अल्पकालमें ही फलीभूत हो जॉय । ___ श्रीतीर्थकरने तो इतनातक कहा है कि जिस ज्ञानी-पुरुषकी संसार-परिक्षीण दशा हो गई है, उस ज्ञानी-पुरुषके परंपरा-कर्मबंध होना संभव नहीं है, तो भी पुरुषार्थको ही मुख्य रखना चाहिये, जो दूसरे जीवके लिये भी आत्मसाधनके परिणामका हेतु हो । ज्ञानी-पुरुषको आत्म-प्रतिबंधरूपमें संसार-सेवा होती नहीं, किंतु प्रारब्ध-प्रतिबंधरूपमें होती है, फिर भी उससे निवृत्तिरूप परिणामकी प्राप्तिकी ही ज्ञानीकी रीति हुआ करती है। जिस रीतिका आश्रय करते हुए आज तीन वर्षों से विशेषरूपसे वैसा किया है, और उसमें अवश्यमेव आत्मदशाको भुलानेका संभव रहे, ऐसे उदयको भी यथाशक्य समभावसे सहन किया है । यद्यपि उस वेदन कालमें सर्वसंग निवृत्ति किसी भी प्रकारसे हो जाय तो बड़ी अच्छी बात हो, ऐसा सदैव ध्यान रहा है । फिर भी सर्वसंग निवृत्तिसे जैसी दशा होनी चाहिये, वह दशा उदयमें रहे, तो अल्पकालमें ही विशेष कर्मकी निवृत्ति हो जाय, ऐसा जानकर जितना हो सका उतना उस प्रकारका प्रयत्न किया है । किन्तु मनमें अब यों रहा करता है कि यदि इस प्रसंगसे अर्थात् सकल गृहवाससे दूर न हुआ जा सके, तो न सही, किन्तु यदि व्यापारादि प्रसंगसे निवृत्त-दूर-दुआ जा सके तो उत्तम हो । क्योंकि आत्मभावसे परिणामकी प्राप्तिमें ज्ञानीकी जो दशा होनी चाहिये, वह दशा इस व्यापार-व्यवहारसे मुमुक्षु जीवको दिखाई नहीं देती है। इस प्रकार जो लिखा है, उसके विषयमें अभी हालमें कभी कभी विशेष विचार उदित होता है; उसका जो कुछ भी परिणाम आवे सो ठीक । ४७५ बम्बई, माघ सुदी २ रवि. १९५१ . चित्तमें कोई भी विचारवृत्ति परिणमी है, यह जानकर हृदयमें आनंद हुआ है। असार एवं केशरूप आरंभ परिग्रहके कार्यमें रहते हुए यदि यह जीव कुछ भी निर्भय अथवा अजागृत रहे तो बहुत वर्षोंके उपासित वैराग्यके भी निष्फल चले जानेकी दशा हो जाती है, इस प्रकार नित्य प्रति निश्चयको याद करके निरुपाय प्रसंगमें डरसे काँपते हुए चित्तसे अनिवार्यरूपमें प्रवृत्त होना चाहिये-इस बातका मुमुक्षु जीवके प्रत्येक कार्यमें, क्षण क्षणमें और प्रत्येक प्रसंगमें लक्ष्य रक्खे बिना मुमुक्षुता रहनी दुर्लभ है; और ऐसी दशाका अनुभव किये बिना मुमुक्षुता भी संभव नहीं है । मेरे चित्तमें हालमें यही मुख्य विचार हो रहा है। .
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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