SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पत्र ४७०, ४७१, ४७२] विविध पत्र आदि संग्रह-२८याँ वर्ष ४३१ संशय नहीं होता था, फिर भी प्रसंगानुसार परमार्थ दृष्टि के लिये शिथिलताका कारण होनेकी संभावना दिखाई देती थी । किन्तु उसको देखते हुए बड़ा खेद तो इसलिये होता था कि इस मुमुक्षुकी कुटुम्बमें सकमबुद्धि विशेष होगी और परमार्थ दृष्टि मिट जायगी, अथवा उसकी उत्पत्तिकी संभावना दूर हो जायगी, और इस कारणसे दूसरे बहुतसे जीवोंको वह स्थिति परमार्थकी अप्राप्तिमें हेतुभूत होगी। फिर सकामभावसे भजनेवालेकी वृत्तिको शांत करना हमारे द्वारा होना कठिन बात है, इसलिये सकामी जीवोंको पूर्वापर विरोध बुद्धि होने अथवा परमार्थ- पूज्यभावना दूर हो जानेकी संभावना हमें जो दिखाई देती थी, वह वर्तमानमें न हो, उसका विशेष उपयोग रहे, इसीलिये उसे सामान्यरूपसे लिखा है। पूर्वापर इस बातका माहात्म्य समझा जाय और दूसरे जीवोंका उपकार हो वैसा विशेष लक्ष रखना। ४७० मोहमयी, पौष सुदी १ शुक्र. १९५१ जिस किसी प्रकार असंगताद्वारा आत्मभाव साध्य हो उसी प्रकारका आचरण करना, यही जिनभगवान्की आज्ञा है। इस उपाधिरूप व्यापारादि प्रसंगसे छूटनेका बारंबार विचार रहा करता है, तो भी उसका अपरिपक काल समझकर उदयके कारण व्यवहार करना पड़ता है। किन्तु उपरि-लिखित जिनभगवान्की आज्ञा प्रायः विस्मरण नहीं होती है, और हालमें तो हम तुमको भी उसी भावके विचार करनेके लिये कहते हैं। ४७१ बम्बई पाष सुदी १० रवि. १९५१ प्रत्यक्ष जेलखाना होनेपर भी उसकी त्याग करनेकी जीवकी इच्छा नहीं होती, अथवा वह अत्यागरूप शिथिलताको त्याग नहीं सकता, अथवा वह त्याग बुद्धि होनेपर त्याग करते करते कालयापन करता जाता है-इन सब विचारोंको जीव कैसे दूर करे, अल्पकालमें वैसा करना कैसे हो, इस विषयमें हो सके तो पत्रद्वारा लिखना । ४७२ बम्बई, पाष वदी २, १९५१ *२-२-३मा-१९५१ द्रव्य, एक लक्ष. क्षेत्र, मोहमयी. -मा. व. ८-१. भाव, उदयभाव. * स्पष्टीकरणः-२-२-३मा-१९५१ [२-द्वितीया, २-कृष्ण पक्ष, ३ पौष, मा-मास, १९५१ संवत् १९५१ पौष वदी २, १९५१. एक लक्ष एक लाख. क्षेत्र-स्थान. मोहमयी-चम्बई. काल-समय. 'मा. व. ८-१-एक वर्ष और आठ महीने. -यह विचारणा पौष वदी २, १९५१ के दिन लिखी गई है कि द्रव्य-मर्यादा एक लक्ष रुपयेकी करनी, बम्बई में एक वर्ष आठ महीने निवास करना, और ऐसी पत्ति होनेपर भी उदयभावके अनुसार प्रवृत्ति करना। -अनुवादक. काळ, द्रव्य-धन.
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy