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________________ भीमद् राजचन्द्र . [पत्र ४६९ - . किसी भी पर पदार्थके लिये इच्छाकी प्रवृत्ति करना, और किसी भी पर पदार्थमें वियोगकी चिन्ता करना, उसे श्रीजिन आर्तध्यान कहते हैं, इसमें सन्देह करना योग्य नहीं है। तीन वर्षोंके उपाधि-योगसे उत्पन्न हुए विक्षेप भावको मिटानेका विचार रहता है । जो प्रवृत्ति दृढ़ वैराग्यवानके चित्तको बाधा कर सकती है वह प्रवृत्ति यदि अढ़ वैराग्यवान जीवको कल्याणके सन्मुख न होने दे तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। संसारमें जितनी परिणतियोंको सारभूत माना गया है, उतनी ही आत्म-ज्ञानकी न्यूनता श्रीतीर्थकरने कही है। परिणाम जड़ होता है, ऐसा सिद्धांत नहीं है । चेतनको चेतन परिणाम होता है और अचेतनको अचेतन परिणाम होता है, ऐसा जिनभगवान्ने अनुभव किया है । परिणाम अथवा पर्यायरहित कोई भी पदार्थ नहीं है, ऐसा श्रीजिनने कहा है, और वह सत्य है। श्रीजिनने जो आत्मानुभव किया है और पदार्थके स्वरूपको साक्षात्कार कर जो निरूपण किया है, वह सब मुमुक्ष जीवोंको अपने परम कल्याणके लिये अवश्य ही विचार करना चाहिये। जिनभगवान्द्वारा कथित सब पदार्थके भाव एक आत्माको प्रकट करनेके लिये ही हैं, और माक्षमागर्म प्रवृत्ति तो केवल दोकी ही होती है:-एक आत्म-ज्ञानीकी और एक आत्म-ज्ञानीके आश्रयवानकी.ऐसा श्रीजिनने कहा है । वेदकी एक श्रुतिमें कहा गया है कि आत्माको सुनना चाहिये, विचारना चाहिये, मनन करना चाहिये, अनुभव करना चाहिये; अर्थात् यदि केवल यही एक प्रवृत्ति की जाय तो जीव संसारसागरको तैरकर पार पा जाय, ऐसा लगता है। बाकी तो श्रीतीर्थकरके समान ज्ञानीके बिना हर किसीको इस प्रवृत्तिको करते हुए कल्याणका विचार करना, उसका निश्चय होना तथा आत्म-स्वस्थताका प्राप्त होना दुर्लभ है। ४६९ बम्बई, मंगसिर १९५१ ईश्वरेच्छा बलवान है और काल भी बड़ा विषम है । पहिले ही जानते थे और स्पष्ट श्रद्धान था कि ज्ञानी-पुरुषको सकाम भावसहित भजनेसे आत्माको प्रतिबंध होता है, और बहुत बार तो ऐसा होता है कि परमार्थ दृष्टि नष्ट होकर संसारार्थ दृष्टि हो जाती है। ज्ञानीके प्रति ऐसी दृष्टि होनेसे पुनः मुलभ-बोधिता प्राप्त होना बड़ी कठिन बात है, ऐसा जानकर कोई भी जीव सकाम भावसे समागम न करे, इसी प्रकारका आचरण हो रहा था। हमने तुमको तथा श्री.........."आदिको इस मार्गके संबंधमें कहा था, किन्तु हमारे दूसरे उपदेशोंकी भाँति किसी पूर्व प्रारब्ध योगसे तत्काल ही उसका ग्रहण तुमको नहीं होता था। हम जब कभी भी तत्संबंधी कुछ भी कहते थे तब पूर्वके आचार्योंने ऐसा आचरण किया है-आदि प्रकारके प्रत्युत्तर दिये जाते थे । उन उत्तरोंसे हमारे चित्तमें इसलिये बड़ा खेद होता था कि यह सकाम-वृत्ति दुःषम कालके कारण ऐसे मुमुक्षु पुरुषमें भी मौजूद है, नहीं तो उसका स्वममें भी होना संभव न था । यद्यपि उस सकाम-वृत्तिसे तुम परमार्थ दृष्टिभावको भूल जाओगे, ऐसा
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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