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________________ भीमद् राजचन्द्र [पत्र ४०१ मुझे अपने दोषके लिये बारम्बार ऐसा लगता है; जिस दोषके बलको परमार्यसे देखते हुए मैंने यह कहा है । परन्तु दूसरे आधुनिक जीवोंके दोषके सामने अपने दोषकी अत्यंत अल्पता मालूम होती है, यद्यपि ऐसा माननेकी कोई इच्छा नहीं है, फिर भी स्वभावसे कुछ ऐसा ही मालूम होता है। ऐसा होनेपर भी किसी विशेष अपराधीकी तरह जबतक हम यह व्यवहार करते हैं तबतक अपनी आत्मामें ही लगे रहेंगे । तुम्हें और तुम्हारे संगमें रहनेवाले किसी भी मुमुक्षुको यह बात कुछ भी विचारने योग्य अवश्य मालूम होती है। (२) यह त्यागी भी नहीं, अत्यागी भी नहीं। यह रागी भी नहीं, वीतरागी भी नहीं। अपना क्रम निश्चल करो । उसके चारों ओर निवृत्त भूमिका रक्खो। यह जो दर्शन होता है, क्या वह वृथा चला जाता है ! इसका विचार पुनः पुनः करते हुए मूर्छा आ जाती है। संतजनोंने अपना क्रम नहीं छोड़ा है, जिन्होंने छोड़ दिया है, उन्होंने परम असमाधिको पाया है संतपना अति अति दुर्लभ है। आनेके बाद संतका मिलना कठिन है। संतपनेकी जिज्ञासावाले अनेक हैं, परन्तु दुर्लभ संतपना तो दुर्लभ ही है। (३) क्षायोपशमिक ज्ञानके विकल होते हुए क्या देर लगती है ! यदि इस जीवने उस वैभाविक परिणामको क्षीण न किया तो वह इसी भवमें प्रत्यक्ष दुःखका वेदन करेगा। ४०९ बम्बई, चैत्र वदी १२, १९५० जो मुमुक्षु जीव गृहस्थके व्यवहारमें रहता हो, उसे पहिले तो आत्मामें अखंड नीतिका मूल स्थापित करना चाहिये, नहीं तो उपदेश आदिकी निष्फलता ही होती है। द्रव्य आदि पैदा करने आदिमें सांगोपांग न्यायसंपन्न रहनेका नाम नीति है । इस नीतिके छोड़ते हुए प्राण जानेकी दशा आनेपर त्याग वैराग्य सच्चे स्वरूपमें प्रगट होते हैं, और वही जीवको सत्पुरुषके वचनके तथा आज्ञा-धर्मके अद्भुत सामर्थ्य, माहात्म्य और रहस्यको समझाता है, और इससे सब वृत्तियोंके निजरूपसे प्रवृत्ति करनेका मार्ग स्पष्ट सिद्ध होता है। ___प्रायः करके तुम्हें देश, काल, संग आदिका विपरीत संयोग रहता है; इसलिये बारम्बार, प्रत्येक पलमें, और प्रत्येक कार्यमें सावधानीसे नीति आदि धर्मोमें प्रवृत्ति करना योग्य है। तुम्हारी तरह जो जीव कल्याणकी आकांक्षा रखता है और जिसे प्रत्यक्ष सत्पुरुषका निश्चय है, उसे प्रथम भूमिकामें यह नीति परम आधार है । जो जीव ऐसा मानता है कि उसे सत्पुरुषका निश्चय हुआ है, परन्तु उसमें यदि ऊपर कही हुई नीतिका प्राबल्य न हो, और वह उससे कल्याणकी याचना करे, तथा बात करे, तो
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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